चंदा बारगल/ धूप-छांव/ महात्मा गांधी को गुजरे साढ़े छह दशक से अधिक वक्त हो गया...इस दौरान सब कुछ बदल गया है...देश बदला है...दुनिया बदली है...नीति—नियम बदल गए...आदर्श—सिद्धांत बदल गए...पर ऐसा क्या है जो नहीं बदला है...और जो नहीं बदला है, वह है सत्य...सत्य कभी बदलता नहीं और बदलने वाला भी नहीं...सत्यम, शिवम, सुंदरम...लिहाजा, गांधी जिंदा है...और सदैव जिंदा रहने वाले हैं...क्योंकि गांधीजी सत्य के पर्याय थे...सत्य के प्रतीक थे...सत्य, गांधीजी के पहले से था पर गांधीजी ने ही सबसे पहले सत्य को प्रतिष्ठापित किया...गांधीजी ने एक बार कहा भी था कि मुझे कुछ नहीं कहना, सत्य और अहिंसा तो आदि अनादि काल से चलते आए हैं.
गांधीजी, अभी जिंदा हैं...और हमेशा जिंदा रहेंगे...जहां सत्य है, वहां गांधीजी हैं...जहां अहिंसा है, वहां गांधीजी हैं...जहां सादगी है, वहां गांधीजी हैं...जहां सरलता और सहजता है, वहां गांधीजी हैं....गांधीजी प्रतिमाओं, तस्वीरों में नहीं, बल्कि आज भी लोगों के दिल में जिंदा हैं...जहां सत्य का आग्रह है, वहां गांधीजी मौजूद है...गांधीजी को भले ही शांति का नोबल पुरस्कार न मिला हो, मगर जितने भी लोगों को नोबल पुरस्कार मिला है, उन सभी के जीवन में गांधीजी झलकते हैं...गांधीजी साउथ अफ्रीका के नेल्सन मंडेला में है तो गांधीजी म्यानमार की आंग सान सू में हैं...गांधीजी डेसमोंड टुटु में हैं...गांधीजी दलाई लामा में झलकते हैं तो वांगारी मथाई में भी दृष्टिगोचर होते हैं, इसलिए पूछा जा सकता है कि गांधीजी कहां नहीं हैं? हरेक व्यक्ति में कहीं न कहीं गांधीजी हैं...सांस में गांधीजी की सुगंध है, सादगी में महक है...सत्य में गांधीजी की सांस है और आजादी के कण—कण में गांधीजी का रंग है.
दुर्भाग्य से हमने गांधी को समझा ही नहीं. न उनके सिद्धांतों को और न ही उनके मूल्यों को समझा और न समझने की कोशिश की. हमने गांधीजी का उपयोग करने के बजाय दुरुपयोग ही अधिक किया है. हम ज्यादातर तो उनका उपहास ही उड़ाते हैं...गांधीगीरी जैसी नई परिपाटी बनाते हैं...और उनके साथ ज्यादती करते हैं.
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