शुक्रवार, 15 जून 2012

एक थी नईदुनिया: 'पत्र संपादक के नाम'

जी हां, मैं आज की 'नईदुनिया' की बात नहीं कर रहा हूं, मैं उस दौर की 'नईदुनिया' की बात कर रहा हूं, जो वाकई 'नईदुनिया' होती थी. उस 'नईदुनिया' की बात ही निराली थी.उसकी अपनी छोटी-सी दुनिया होती थी. कुल जमा आठ पन्नों की, जिसमें हर रोज पाठकों के बीच एक 'नईदुनिया' होती थी...उन आठ पन्नों के गुलदस्ते में देश, दुनिया, स्थानीय, आंचलिक, खेल, वाणिज्य, उद्योग आदि की खबरें सुनियोजित रुप से पिरोई जाती थीं. 'नईदुनिया' का सर्वाधिक चर्चित स्तंभ 'पत्र संपादक के नाम' हुआ करता था.वाकई, वह स्तंभ जादुई और करिश्माई था. वह दूसरे तमाम अखबारों के स्तंभों और यूं कहूं कि 'नईदुनिया' के दूसरे स्तंभों पर भी बहुत भारी था.

उस जमाने के तमामअखबारों में 'नईदुनिया' बेजोड़ थी. देश भर से निकलने वाले यहां तक कि दिल्ली, मुंबई से प्रकाशित अखबार भी उसके सामने उन्नीसे थे. छपाई, कागज, सामग्री हर मामले में 'नईदुनिया' का कोई सानी नहीं था. (कड़ावघाट, इंदौर से प्रकाशित 'दैनिक जागरण' जैसे अखबार बंद हो चुके हैं तो बाकी के बराएनाम आज भी छप रहे हैं...हां, तब दैनिक भास्कर इंदौर नहीं आया था...) खैर, 'नईदुनिया' में 'पत्र, संपादक के नाम' कॉलम में लिखते-लिखते ही और 'नईदुनिया' पढते-पढ़ते ही मैं पत्रकार बन गया, यह कहने में मुझे कोई गुरेज नहीं, बल्कि गर्व है. एसडी बर्मन साहब का संगीतबद्ध एक गीत है, 'जो राह चुनी तूने, उस राह पे राही चलते जाना...
मैंने महू के डिग्री  कॉलेज के प्रथम वर्ष में अध्ययन के दौरान ही विचार किया था कि मुझे क्या बनना है...मैं महू डिग्री कॉलेज (डॉ. भीमराव बाबासाहब आम्बेडकर की जन्मस्थली महू की, इंदौर से तब की दूरी 21 किलोमीटर) ,,,कॉलेज लाइफ में या उसके पहले हर व्यक्ति यह सपना देख चुका होता है कि उसे क्या बनना है? मैंने कॉलेज में पढ़ाई के दौरान ही सोचना शुरु किया था कि मुझे क्या बनना है? (पहला, में सेना में जाना चाहता था, दूसरा मैं प्रशासनिक अधिकारी बनना चाहता था...तीसरा मैं पत्रकारिता करना चाहता था.) खैर, तकदीर, तकदीर होती है और हर कोई जैसा सोचता है, वैसा उसके जीवन में मनमाफिक नहीं होता.
लिख्नने का शौक बचपन से था और छपे हुए शब्दों का जादू आपको उस दुनिया में खुद-ब-खुद खींच ले जाता है. (पहले-पहल जब अपना नाम छपता है तब कितनी खुशी होती है, यह मेरी ही तरह हर कलमकार जानता है)...उन दिनों 'नईदुनिया' के  'पत्र, संपादक के नाम' स्तंभ में छपने के लिए जबरदस्त होड़ मचा करती थी। संपादकीय पृष्ठ पर मुख्य लेख के नीचे 'अधबीच' शीर्षक से व्यंग्य हुआ करता था, फिर एक लघु लेख, उसके बाद की जगह पर पत्र हुआ करते थे. कभी आठ-दस पत्र प्रकाशित होते थे तो कभी 4-3 और यदा-कदा एक या दो, मगर ऐसा बहुत कम होता था...उन दिनों केशरबाग रोड आने वाली डाक में ज्यादातर 'पत्र, संपादक के नाम' हुआ करते थे...
मेरे जेहन में उन दिनों छपने वाले कुछ लेखक-लेखिका याद आ रहे हैं, मसलन, इंदू मेहता, 1 रेसकोर्स रोड, इंदौर, जीवनसिंह ठाकुर, पुंजापुरा, बागली, देवास, सुरेंद्र कांकरिया, थांदला, प्रवीण चौधरी, बागली, देवास, जगजीवनसिंह पंवार, डाक बंगला, बदनावर जिला धार, कुलवंतसिंह शेहरी, हरी फाटक, महू, दिनेश सोलंकी, महू, पुष्पेंद्र सोलंकी, अलीराजपुर, झाबुआ, जाकिर अली "मरहूम", इन्दौर, डॉ. जैनेन्द्र जैन इन्दौर, कनकमल जैन जावरा, सुभाष जैन,राजपुर, खरगोन, हेमराज प्रजापति, आदर्श इंदिरा नगर, इंदौर, पवन गंगवाल, नहूनाका, इंदौर, प्रेमचंद्र द्वितीय, बडनगर, उज्जैन, सुभाष कार्णिक, ज्वाय बिल्डिंग,  इंदौर-ये उस जमाने के कुछ नाम पते हैं, जो आज भी जेहन में हैं...
मेरा पहला पत्र इंदौर शहर की सिटी बसों को लेकर छपा था, प्रकाशित पत्र को देखकर, जो खुशी मिली थी, उसे आज भी महसूस कर सकता हूं.

क्रमश: 

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