बुधवार, 22 अगस्त 2012

जॉनी, तुम वाकई बहुत याद आते हो

अभिनेता राजकुमार को गुजरे 15 साल हो गए, परंतु लाखों-करोड़ों प्रशंसकों के दिलोदिमाग पर वे आज भी छाए हुए हैं। गत जुलाई में उनकी पुण्यतिथि थी। वे 3 जुलाई 1996 को दुनिया को गुड बॉय कर गए थे। इसके बाद के इतने वर्षो में अदाओं के शहंशाह का खिताब आज भी उनके नाम पर ही है। राजकुमार की संवाद शैली आज भी लोगों के कानों में गूंजती है। उनकी फिल्म ‘सौदागर’ का एक संवाद है-‘जॉनी..हम तुम्हें मारेंगे, और जरूर मारेंगे, पर बंदूक भी हमारी होगी, गोली भी हामरी होगी, और वक्त भी हमारा होगा।’

‘जॉनी’ शब्द राजकुमार का पर्यायवाची बन गया था। उन्हें डायलॉग डिलीवरी का बादशाह माना जाता था। पूरे चार दशक तक हिंदी फिल्मों में अपने स्टाईल का रूबाब गांठने वाले राजकुमार को बालीवुड एक तुनकमिजाज, सनकी हीरो के रूप में जानता था। तलवारकट मूंछें, गंभीर चेहरा और पत्थर-सी आंखों के धनी राजकुमार अभिनय के पंडित थे। उनकी आवाज में एक प्रकार की ‘खनक’ थी, रूआब था। उनकी फिल्म ‘तिरंगा’ का एक संवाद और उसमें डाला गया पंच आज भी उनके प्रशंसकों को ताजा है-‘ना तलवार की धार से, ना गोलियों की बौछार से..बंदा डरता है तो सिर्फ परवरदीगार से।’

यूं देखा जाए तो राजकुमार, देवआनंद, राजेंद्रकुमार, जितेंद्र या राजकपूर जैसे ट्रेडिशनल हीरो नहीं थे। उनकी स्टाइल स्टिरियोटाईप होने से उन्होंने प्रिंस, शायर, जमींदार, आर्मी आफीसर, पुलिस अफसर, गेंगस्टर से लेकर रोमेंटिक हीरो के रोल किए थे। फिल्म ‘वक्त’ में उन्होंने एक सोफेस्टिकेटेड चोर का रोल किया था। ऐसे लोगों के लिए बालीवुड में आजकल ‘एक्स’शब्द इस्तेमाल होता है, यानी ‘समथिंग स्पेशल’

दुर्भाग्य से बालीवुड पर लिखने वाले कलमकारों, इतिहासकारों ने राजकुमार के बारे में बहुत कम लिखा है। राजकुमार मूलत: कश्मीरी पंडित थे। उनका जन्म 9 अक्टूबर 1048 को हुआ था। उनका मूल नाम कुलभूषण पंडित था। वे अखंड भारत के बलूचिस्तान में पैदा हुए थे और पढ़ाई करने के बाद मुंबई आ गए थे। केरियर की शुरुआत उन्होंने 1940 में मुंबई पुलिस में सब इन्स्पेक्टर की नौकरी कर की थी। 1960 में उन्होंने गायत्री नामक युवती से शादी कर ली थी। वे तीन संतानों के पिता बने थे।

सन् 1952 में उन्होंने फिल्मों में एक्टिंग शुरू की थी। स्क्रीन के लिए उनका नाम बदलकर राजकुमार रख दिया गया था। उस जमाने के अभिनेता अपने नाम के पीछे कुमार लगाते थे। मसलन, युसुफ खान ने अपना नाम दिलीपकुमार रखा था। उनकी फिल्म ‘रंगीली’ बॉक्स आफिस पर हिट होते ही उन्हें फिल्में मिलना शुरू हो गईं। हालांकि, महबूब खान ने जब उन्हें ‘मदर इंडिया’ में रोल ऑफर किया, तब वे बहुत फेमस नहीं थे। ‘मदर इंडिया’ एक यादगार और क्लासिक फिल्म थी। उसमें उन्होंने नर्गिस के पति का रोल किया था। इस फिल्म में नर्गिस और सुनील दत्त एक-दूसरे के प्रेम में पड़कर शादी रचा लेते हैं। 1957 में बनी इस फिल्म का ऑस्कर के लिए नामांकन हुआ था। फिल्म को आऊस्कर तो नहीं मिला था पर इस फिल्म में काम करने वाले तमाम कलाकारापें को देशभर में जबरदस्त सफलता मिली थी। उनमें राजकुमार भी थे। उन्होंने एक गरीब किसान का रोल किया था। खेत में एक वजनदार पत्थर को हटाने में उनके दोनों हाथ कट जाते हैं। ऐसे अपाहिज किसान की भूमिका उन्होंने की थी। ऐसे रोल शाहरुख खान, सलमान खान या त्रत्विक रोशन या रणबीर कपूर शायद ही करते हैं।

फिल्म ‘मदर इंडिया’ की सफलता के बाद राजकुमार की बहुत-सी फिल्में हिट हुईं थीं, जिनमें शरारत, दिल अपना और प्रीत पराई, घराना, दिल एक मंदिर, वक्त, हमराज, नीलकमल, लाल पत्थर, हीर रांझा और हिंदुस्तान की कसम आदि शुमार हैं। उस दौर में राजकुमार को लोकप्रिय अभिनेता सुनील दत्त, शशीकपूर, राजेंद्रकुमार और बलराज साहनी जैसे कलाकारों के सामने काम करने का मौका मिला था और वे उन सबके सामने बाजी मार गए थे। फिल्म ‘वक्त’ का डायलॉग उनके प्रशंसक आज भी भूले नहीं हैं:‘चिनॉय सेठ, छुरी बच्चों के खेलने की चीज नहीं होती। लग जाती है तो खून निकल आता है।’ ‘वक्त’ फिल्म का ही दूसरा डायलॉग है: ‘चिनॉय सेठ, जिनके घर शीशे के होते हैं, वो दूसरों के घर पर पत्थर फेंका नहीं करते’

उस जमाने में राजकुमार के इन संवादों पर थियेटर्स दर्शकों की तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठते थे। गूंजे भी क्यों नहीं? आखिर, वे डायलॉग डिलेवरी के सम्राट जो थे। यही नहीं, वे एक पूर्ण और वर्सेटाईल एक्टर भी थे। वे जब डायलॉग बोलते थे तो गुस्से को नियंत्रण में रखने की क्षमता और उससे उत्पन्न होने वाला अहंकार छल्लकता था। ‘नीलकमल’ जैसी फिल्म में उन्होंने रोमेंटिक हीरो की भूमिका भी गंभीरता से निभाई थी।  ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ फिल्म में वे मीनाकुमारी से शादी नहीं कर सकते थे, इसलिए उन्होंने अपनी आंखों से अपनी भावनाओं का जबरदस्त तरीके से इजहार किया था। इस फिल्म के गीत: ‘अजीब दास्तां हैं’ के दृश्यांकन में राजकुमार ने प्रणयमग्न होकर जो भाव लाए थे, वे आज भी दर्शकों के मानस पटल पर दर्ज हैं।

फिल्म ‘पाकीजा’ का वह दृश्य आज भी गाहे-बगाहे जेहन में आ ही जाता है, जब राजकुमार ट्रेन में सफर करते हैं और मीनाकुमारी के पैर देखते हैं और बोलते हैं: ‘आपके पांव देखे, बहुत हसीन हैं। इन्हें जमीन पर मत रखिएगा, मैले हो जाएंगे।’ क्या यह डायलॉग आप भूल पाएंगे?  

उन दिनों अवार्ड पाना बहुत पाना मुश्किल काम होता था। फिल्म-पत्रिका ‘फिल्म फेयर’का अवार्ड उस जमाने का सबसे गौरवपूर्ण एवं प्रतिष्ठित अवार्ड माना जाता था। 1960 में राजकुमार को फिल्म ‘दिल एक मंदिर’ और ‘वक्त’ के लिए श्रेष्ठ सह अभिनेता का अवार्ड मिला था। स्वभाव से किशोरकुमार की मापिॅक मूडी थे। वे अपनी शर्तो पर जिंदगी जीते थे और काम करते थे। उन्होंने प्रकाश मेहरा की फिल्म ‘जंजीर’ ठुकरा दी थी। पता है क्यों? उन्होंने ही कहा था, ‘मुङो प्रकाश मेहरा की सूरत अच्छी नहीं लगती।’ इसके बाद ही फिल्म के एंग्रीयंगमेन की भूमिका अमिताभ बच्चन को मिला और वे हिट हो गए। एक और दिलचस्प किस्सा राजकुमार का। एक बार एक फिल्म निर्माता उनके पास एग्रीमेंट करने आया। राजकुमार ने पूछा,‘कितने पैसे दोगे?’ निर्माता ने कोई एमाउंट बोला। राजकुमार ने कहा, ‘उतने पैसे में तो उस गोरखे को ले जाओ!’ राजकुमार का इशारा डेनी डेंजोग्पा की ओर था। राजकुमार, मोहम्मद रफी के कितने ही सदाबहार और यादगार गीतों का स्क्रीन का चेहरा था। उदाहरणार्थ, ‘छू लेने दो नाजुक होठों को, कुछ और नहीं जाम है ये’, ‘ये जुल्फ अगर खुल के बिखर जाए तो अच्छा हो’और ‘और ये दुनिया, ये महफिल।’ ऐसे अनेक गाने-तराने हम आज भी गुनगुनाते हैं। जॉनी, तुम वाकई बहुत याद आते हो।

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