गुजरात में विधानसभा के चुनावों का बिगुल बज गया है। आगामी 13 और 17
दिसंबर को दो चरणों में चुनाव होकर 20 दिसंबर को मतगणना होगी, यानी नतीजे आ
जाएंगे। ये चुनाव न केवल नरेंद्र मोदी के लिए, बल्कि भाजपा, कांग्रेस और
केशुभाई पटेल का भी राजनीतिक भविष्य लिखेंगे।
अहम सवाल ये है कि क्या नरेंद्र मोदी का जादू इस बार चल पाएगा? और, वे सतत तीसरी मर्तबा मुख्यमंत्री बन पाएंगे? ये चुनाव नरेंद्र मोदी के लिए इसलिए भी मायने रखते हैं क्योंकि उससे ही उनका गांधीनगर से दिल्ली का सफर तय होगा। हालांकि चुनाव की घोषणा के काफी पहले ही गुजरात में राजनीतिक पार्टियों ने बिसात बिछाना शुरू कर दिया था।
जहां तक गुजरात विधानसभा के अगले चुनाव की बात है, मोदी के लिए ये चुनाव प्रतिष्ठापूर्ण ही नहीं बल्कि पिछले चुनावों के मुकाबले काफी कशमकश भरे होंगे। यदि हम पिछले यानी 2004 के चुनावों को देखें तो कह सकते हैं कि पिछले चुनाव में मोदी के लिए खुला मैदान था। कांग्रेस तब बिखरी हुई थी। केशुभाई पटेल की अलग पार्टी अस्तित्व में नहीं थी। इस बार नरेंद्र मोदी को कांग्रेस और केशुभाई की परिवर्तन पार्टी- इन दोनों का सामना करना होगा। नरेंद्र मोदी जहां अपने अजेय होने के अति आत्मविश्वास में हैं, वहीं कांग्रेस फूंक-फूंककर कदम रख रही है। पिछले चुनाव में कांग्रेस की कमजोरी उसकी गुटबाजी थी। इस बार कांग्रेस के तमाम दिग्गज नेता एकजुट हैं। पार्टी हाईकमान के चेतावनी भरे रुख के चलते कांग्रेस के तमाम वरिष्ठ नेता परस्पर तालमेल बैठाकर सक्रिय हो गए हैं। कांग्रेस में, फिलहाल जो उत्साह दिखाई पड़ रहा है, उसका भाजपा में अभाव है।
गुजरात में कांग्रेस दम तोड़ चुकी है, इस खयाल से नरेंद्र मोदी ने शुरुआत में तो कांग्रेस के ‘घर का घर’ योजना की ‘एक का तीन’ कहकर हंसी उड़ाई, किंतु जब कांग्रेस की इस योजना को भारी समर्थन मिलने लगा तो भाजपाई छावनी को सांप सूंघ गया था और भाजपा नेताओं की नींद हराम हो गई थी। आश्चर्य की बात तो यह है कि कांग्रेस की ‘घर का घर’ योजना के फॉर्म लेने भाजपा कार्यकर्ता भी उमड़ पड़े थे। सत्ता की मदहोशी में भाजपा की सरकार गरीब और मध्यम वर्ग के परिवारों की इस समस्या को भूल ही गई थी। भाजपा सरकार ने गुजरात हाऊसिंग बोर्ड और गंदी बस्ती निर्मलन बोर्ड को मृत:प्राय कर दिया था, लेकिन कांग्रेस के एक ही दांव ने मोदी की पेशानी पर बल ला दिए।
मोदी भले ही गुजरात को लेकर आश्वस्त मुद्रा में हों, किंतु जानकारों की मानें तो समूचे गुजरात में मोदी विरोधी प्रचंड अंडर करंट बह रहा है। सत्ता प्राप्ति के लिए हर बार की तरह इस बार गुजरात की ग्रामीण जनता मोदी की जादुई छड़ी में फंसने वाली नहीं है। ग्रामीण जनता का मिजाज बदल गया है। लोगों को इस बात का अहसास हो गया है कि पिछले 10 सालों में मोदी ने गुजरात की जनता को खूब मूर्ख बनाया है। मोदी की चीन यात्र हो या जापान की, पतंगोत्सव हो, वाइब्रंट समिट, नवरात्रि उत्सव के पीछे गुजरात की जनता का करोड़ों रुपए का खर्च मोदी की प्रशंसा के लिए ही किया गया है, यह लोग मानने लगे हैं।
गुजरात को जापान बनाने का सपना दिखाने वाले मोदी अकाल के दिनों में किसानों को सिंचाई का पानी देने के बजाय अपनी ब्रांड इमेज बनाने के लिए सिंचाई की नहरों का पानी साबरमती रिवरफ्रंट में डलवा रहे हैं, ताकि उनके विदेशी मेहमान साबरमती रिवरफंट्र में बोटिंग कर सकें। यह भी चर्चा का विषय है कि मोदी ने अपनी पब्लिसिटी के लिए पब्लिसिटी मैनेजर रखकर जनता के पैसे से देश-विदेश की पत्रिकाओं में अपनी तस्वीर और तारीफ में लेख प्रकाशित करवाए। जो अमेरिका मोदी को वीजा नहीं दे रहा है, उस अमेरिका की ‘टाईम’ पत्रिका मोदी की फोटो कवरपेज पर छापती है। आश्चर्य की बात है कि मोदी को लोकप्रियता के मामले में बराक ओबामा से भी आगे रखा जाता है।
चुनाव के मद्देनजर अब ये सारी चर्चाएं गुजरात गांवों, चौक-चौराहों पर शुरू हो गई हैं। खुद लोग अब बोलने लगे हैं कि वाकपटुता और अभिनय कला में माहिर नरेंद्र मोदी गरीबों के नहीं बल्कि उद्योगपतियों के आदमी हैं। रंग-बिरंगे परिधान धारण कर मेले में जाने के शौकीन मोदी ने पिछले दस सालों में राज्य में मेले ही लगाए हैं। पतंगोत्सव या वाईब्रंट समिट से किसी बेघर का घर नहीं बसा है। टाटा भले ही सिंगूर से ‘नैनो’ लेकर गुजरात आ गए हों, किंतु उससे गुजरात में बेकारी की समस्या हल नहीं हुई है। किसान बिजली कनेक्शनों के लिए बरसों से इंतजार कर रहे हैं।
दस साल 2002 में गोधरा कांड के बाद की घटनाओं का लाभ उठाकर नरेंद्र मोदी ने हंिदूुत्व का सहारा लेकर गुजरात की गद्दी काबिज कर ली थी, किंतु इन दस सालों में साबरमती ही नहीं नर्मदा में भी इतना पानी बह चुका है कि मोदी के पक्ष में दृढ़ता के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता। हिंदुत्व के सहारे गांधीनगर की सत्ता हासिल करने वाले मोदी के राज में ही राज्य की अदालतों में चल रहे प्रकरणों में सबसे अधिक केस हंिदूुओं पर चल रहे हैं। इन प्रकरणों में गांव-गांव से ¨हदुओं को सजा हुई है।
गुजरात के तमाम गांवों में तो यह कहा जाता है कि ‘मोदी महल में और हिंदू जेल में।’ मोदी ने अपने सद्भावना उपवास के लिए जनता के पैसे खर्च किए। ये सौ करोड़ रुपए यदि नर्मदा की नहर बनाने के लिए इस्तेमाल किए जाते तो सौराष्ट्र के किसानों को खुदकुशी करने के दिन नहीं आते। राज्य में कानून-व्यवस्था की स्थिति भी लचर है। अकेले अहमदाबाद की ही बात करें तो रोजाना लूट, हत्या आदि आपराधिक घटनाएं हो रही हैं। सैकड़ों लापता बच्चों को ढूंढने में पुलिस की कोई रुचि ही नहीं है।
पांच साल पहले जब गुजरात में भाजपा की सरकार बनी तो उसके बाद से सरकार की राजस्व मंत्री आनंदीबहन पटेल के ‘सुपर सीएम’ जैसे बर्ताव के कारण दूसरे मंत्री, पार्टी के विधायक, पदाधिकारी और कार्यकर्ता बेहद नाराज हैं। पार्टी और आरएसएस के निष्ठावान नेता सुभाष दामले और संजय जोशी को जिस प्रकार बाहर का दरवाजा दिखाया गया है, उससे पार्टी कार्यकर्ता ही नहीं संघ के कार्यकर्ता भी आहत हैं। अब तक केशुभाई भले ही नाराज रहे हों, निष्क्रिय रहे हों, लेकिन यह पहली बार है, जब वे नरेंद्र मोदी के खिलाफ खुल्लमखुल्ला मैदान में हैं।
केशुभाई पटेल की सौराष्ट्र के लेऊवा पाटीदारों और सूरत के पाटीदारों पर खासी पकड़ है। केशुभाई पटेल को जिस प्रकार मुख्यमंत्री पद से हटाया गया था, उस अन्याय को सौराष्ट्र के पटेल अब भी समझ पाए हैं कि नहीं, यह आने वाला चुनाव बताएगा। केशुभाई पटेल ने जब मोदी के सामने बगावत की थी तब अनेक लोगों को यह लग रहा था कि केशुबापा घर बैठ जाएंगे, पर ऐसा हुआ नहीं, बापा पिछले एक अरसे से राज्य भर में सक्रिय हैं और जिला स्तर पर पाटीदारों के सम्मेलन ले चुके हैं। भाजपा के अनेक नेताओं का भी केशुबापा को आशीर्वाद है। मोदी के खिलाफ मुहीम में उन्हें पूर्व मुख्यमंत्री सुरेश मेहता और गोवर्धन झड़पिया जैसे वरिष्ठ नेताओं का भी सहयोग मिल रहा है।
मोदी के जादू को रोकने के लिए कांग्रेस ने भी अनापेक्षित ढंग से राहुल गांधी को सामने न लाकर सोनिया गांधी को सामने किया है। सोनिया गांधी ने गुजरात में चुनाव प्रचार का श्रीगणोश भी कर दिया है, जिससे यह दृष्टिगोचर होता है कि गुजरात का चुनाव मोदी बनाम सोनिया होगा। सोनिया ने अपने गुजरात दौरे में मोदी पर निशाना न साधते हुए विकास का मुद्दा उठाया है और बड़ी चतुराई से मोदी को जवाब दिया है। पिछले चुनाव में जरूर वे ‘मौत का सौदागर’ जैसी गलती कर गई थीं, लेकिन इस बार वे बहुत ही सधे और नपे-तुले शब्दों में अपनी बात कह गईं। बावजूद इसके मोदी अपनी जीत के प्रति आश्वस्त नजर आ रहे हैं।
वो अब भी यूपीए के खिलाफ अपनी शब्दबाणों के इस्तेमाल से कोई गुरेज नहीं कर रहे हैं। चूंकि गुजरात में अब एक ओर जहां मोदी का जादू फीका होता नजर आ रहा है और केंद्र की यूपीए सरकार भी महंगाई और बेरोजगारी पर लगाम कसने में कमजोर साबित हो रही है, वहीं दूसरी ओर केशुभाई भी ताल ठोंककर गुजरात में उतर चुके हैं, ऐसे में इस बात का अंदाजा लगाना वाकई मुश्किल होता जा रहा है कि इस बार चुनावी ऊंट किस करवट बैठने वाला है।
अहम सवाल ये है कि क्या नरेंद्र मोदी का जादू इस बार चल पाएगा? और, वे सतत तीसरी मर्तबा मुख्यमंत्री बन पाएंगे? ये चुनाव नरेंद्र मोदी के लिए इसलिए भी मायने रखते हैं क्योंकि उससे ही उनका गांधीनगर से दिल्ली का सफर तय होगा। हालांकि चुनाव की घोषणा के काफी पहले ही गुजरात में राजनीतिक पार्टियों ने बिसात बिछाना शुरू कर दिया था।
जहां तक गुजरात विधानसभा के अगले चुनाव की बात है, मोदी के लिए ये चुनाव प्रतिष्ठापूर्ण ही नहीं बल्कि पिछले चुनावों के मुकाबले काफी कशमकश भरे होंगे। यदि हम पिछले यानी 2004 के चुनावों को देखें तो कह सकते हैं कि पिछले चुनाव में मोदी के लिए खुला मैदान था। कांग्रेस तब बिखरी हुई थी। केशुभाई पटेल की अलग पार्टी अस्तित्व में नहीं थी। इस बार नरेंद्र मोदी को कांग्रेस और केशुभाई की परिवर्तन पार्टी- इन दोनों का सामना करना होगा। नरेंद्र मोदी जहां अपने अजेय होने के अति आत्मविश्वास में हैं, वहीं कांग्रेस फूंक-फूंककर कदम रख रही है। पिछले चुनाव में कांग्रेस की कमजोरी उसकी गुटबाजी थी। इस बार कांग्रेस के तमाम दिग्गज नेता एकजुट हैं। पार्टी हाईकमान के चेतावनी भरे रुख के चलते कांग्रेस के तमाम वरिष्ठ नेता परस्पर तालमेल बैठाकर सक्रिय हो गए हैं। कांग्रेस में, फिलहाल जो उत्साह दिखाई पड़ रहा है, उसका भाजपा में अभाव है।
गुजरात में कांग्रेस दम तोड़ चुकी है, इस खयाल से नरेंद्र मोदी ने शुरुआत में तो कांग्रेस के ‘घर का घर’ योजना की ‘एक का तीन’ कहकर हंसी उड़ाई, किंतु जब कांग्रेस की इस योजना को भारी समर्थन मिलने लगा तो भाजपाई छावनी को सांप सूंघ गया था और भाजपा नेताओं की नींद हराम हो गई थी। आश्चर्य की बात तो यह है कि कांग्रेस की ‘घर का घर’ योजना के फॉर्म लेने भाजपा कार्यकर्ता भी उमड़ पड़े थे। सत्ता की मदहोशी में भाजपा की सरकार गरीब और मध्यम वर्ग के परिवारों की इस समस्या को भूल ही गई थी। भाजपा सरकार ने गुजरात हाऊसिंग बोर्ड और गंदी बस्ती निर्मलन बोर्ड को मृत:प्राय कर दिया था, लेकिन कांग्रेस के एक ही दांव ने मोदी की पेशानी पर बल ला दिए।
मोदी भले ही गुजरात को लेकर आश्वस्त मुद्रा में हों, किंतु जानकारों की मानें तो समूचे गुजरात में मोदी विरोधी प्रचंड अंडर करंट बह रहा है। सत्ता प्राप्ति के लिए हर बार की तरह इस बार गुजरात की ग्रामीण जनता मोदी की जादुई छड़ी में फंसने वाली नहीं है। ग्रामीण जनता का मिजाज बदल गया है। लोगों को इस बात का अहसास हो गया है कि पिछले 10 सालों में मोदी ने गुजरात की जनता को खूब मूर्ख बनाया है। मोदी की चीन यात्र हो या जापान की, पतंगोत्सव हो, वाइब्रंट समिट, नवरात्रि उत्सव के पीछे गुजरात की जनता का करोड़ों रुपए का खर्च मोदी की प्रशंसा के लिए ही किया गया है, यह लोग मानने लगे हैं।
गुजरात को जापान बनाने का सपना दिखाने वाले मोदी अकाल के दिनों में किसानों को सिंचाई का पानी देने के बजाय अपनी ब्रांड इमेज बनाने के लिए सिंचाई की नहरों का पानी साबरमती रिवरफ्रंट में डलवा रहे हैं, ताकि उनके विदेशी मेहमान साबरमती रिवरफंट्र में बोटिंग कर सकें। यह भी चर्चा का विषय है कि मोदी ने अपनी पब्लिसिटी के लिए पब्लिसिटी मैनेजर रखकर जनता के पैसे से देश-विदेश की पत्रिकाओं में अपनी तस्वीर और तारीफ में लेख प्रकाशित करवाए। जो अमेरिका मोदी को वीजा नहीं दे रहा है, उस अमेरिका की ‘टाईम’ पत्रिका मोदी की फोटो कवरपेज पर छापती है। आश्चर्य की बात है कि मोदी को लोकप्रियता के मामले में बराक ओबामा से भी आगे रखा जाता है।
चुनाव के मद्देनजर अब ये सारी चर्चाएं गुजरात गांवों, चौक-चौराहों पर शुरू हो गई हैं। खुद लोग अब बोलने लगे हैं कि वाकपटुता और अभिनय कला में माहिर नरेंद्र मोदी गरीबों के नहीं बल्कि उद्योगपतियों के आदमी हैं। रंग-बिरंगे परिधान धारण कर मेले में जाने के शौकीन मोदी ने पिछले दस सालों में राज्य में मेले ही लगाए हैं। पतंगोत्सव या वाईब्रंट समिट से किसी बेघर का घर नहीं बसा है। टाटा भले ही सिंगूर से ‘नैनो’ लेकर गुजरात आ गए हों, किंतु उससे गुजरात में बेकारी की समस्या हल नहीं हुई है। किसान बिजली कनेक्शनों के लिए बरसों से इंतजार कर रहे हैं।
दस साल 2002 में गोधरा कांड के बाद की घटनाओं का लाभ उठाकर नरेंद्र मोदी ने हंिदूुत्व का सहारा लेकर गुजरात की गद्दी काबिज कर ली थी, किंतु इन दस सालों में साबरमती ही नहीं नर्मदा में भी इतना पानी बह चुका है कि मोदी के पक्ष में दृढ़ता के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता। हिंदुत्व के सहारे गांधीनगर की सत्ता हासिल करने वाले मोदी के राज में ही राज्य की अदालतों में चल रहे प्रकरणों में सबसे अधिक केस हंिदूुओं पर चल रहे हैं। इन प्रकरणों में गांव-गांव से ¨हदुओं को सजा हुई है।
गुजरात के तमाम गांवों में तो यह कहा जाता है कि ‘मोदी महल में और हिंदू जेल में।’ मोदी ने अपने सद्भावना उपवास के लिए जनता के पैसे खर्च किए। ये सौ करोड़ रुपए यदि नर्मदा की नहर बनाने के लिए इस्तेमाल किए जाते तो सौराष्ट्र के किसानों को खुदकुशी करने के दिन नहीं आते। राज्य में कानून-व्यवस्था की स्थिति भी लचर है। अकेले अहमदाबाद की ही बात करें तो रोजाना लूट, हत्या आदि आपराधिक घटनाएं हो रही हैं। सैकड़ों लापता बच्चों को ढूंढने में पुलिस की कोई रुचि ही नहीं है।
पांच साल पहले जब गुजरात में भाजपा की सरकार बनी तो उसके बाद से सरकार की राजस्व मंत्री आनंदीबहन पटेल के ‘सुपर सीएम’ जैसे बर्ताव के कारण दूसरे मंत्री, पार्टी के विधायक, पदाधिकारी और कार्यकर्ता बेहद नाराज हैं। पार्टी और आरएसएस के निष्ठावान नेता सुभाष दामले और संजय जोशी को जिस प्रकार बाहर का दरवाजा दिखाया गया है, उससे पार्टी कार्यकर्ता ही नहीं संघ के कार्यकर्ता भी आहत हैं। अब तक केशुभाई भले ही नाराज रहे हों, निष्क्रिय रहे हों, लेकिन यह पहली बार है, जब वे नरेंद्र मोदी के खिलाफ खुल्लमखुल्ला मैदान में हैं।
केशुभाई पटेल की सौराष्ट्र के लेऊवा पाटीदारों और सूरत के पाटीदारों पर खासी पकड़ है। केशुभाई पटेल को जिस प्रकार मुख्यमंत्री पद से हटाया गया था, उस अन्याय को सौराष्ट्र के पटेल अब भी समझ पाए हैं कि नहीं, यह आने वाला चुनाव बताएगा। केशुभाई पटेल ने जब मोदी के सामने बगावत की थी तब अनेक लोगों को यह लग रहा था कि केशुबापा घर बैठ जाएंगे, पर ऐसा हुआ नहीं, बापा पिछले एक अरसे से राज्य भर में सक्रिय हैं और जिला स्तर पर पाटीदारों के सम्मेलन ले चुके हैं। भाजपा के अनेक नेताओं का भी केशुबापा को आशीर्वाद है। मोदी के खिलाफ मुहीम में उन्हें पूर्व मुख्यमंत्री सुरेश मेहता और गोवर्धन झड़पिया जैसे वरिष्ठ नेताओं का भी सहयोग मिल रहा है।
मोदी के जादू को रोकने के लिए कांग्रेस ने भी अनापेक्षित ढंग से राहुल गांधी को सामने न लाकर सोनिया गांधी को सामने किया है। सोनिया गांधी ने गुजरात में चुनाव प्रचार का श्रीगणोश भी कर दिया है, जिससे यह दृष्टिगोचर होता है कि गुजरात का चुनाव मोदी बनाम सोनिया होगा। सोनिया ने अपने गुजरात दौरे में मोदी पर निशाना न साधते हुए विकास का मुद्दा उठाया है और बड़ी चतुराई से मोदी को जवाब दिया है। पिछले चुनाव में जरूर वे ‘मौत का सौदागर’ जैसी गलती कर गई थीं, लेकिन इस बार वे बहुत ही सधे और नपे-तुले शब्दों में अपनी बात कह गईं। बावजूद इसके मोदी अपनी जीत के प्रति आश्वस्त नजर आ रहे हैं।
वो अब भी यूपीए के खिलाफ अपनी शब्दबाणों के इस्तेमाल से कोई गुरेज नहीं कर रहे हैं। चूंकि गुजरात में अब एक ओर जहां मोदी का जादू फीका होता नजर आ रहा है और केंद्र की यूपीए सरकार भी महंगाई और बेरोजगारी पर लगाम कसने में कमजोर साबित हो रही है, वहीं दूसरी ओर केशुभाई भी ताल ठोंककर गुजरात में उतर चुके हैं, ऐसे में इस बात का अंदाजा लगाना वाकई मुश्किल होता जा रहा है कि इस बार चुनावी ऊंट किस करवट बैठने वाला है।
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