राजनीति में रिश्ते और रिश्तों में राजनीति के नए दौर में महाराष्ट्र की
चाचा-भतीजे वाली राजनीति बहुत पुरानी है। हाल ही में चाचा शरद पवार और
भतीजे अजित पवार ने महाराष्ट्र के साथ-साथ केंद्र की राजनीति को फिर से
गरमा दिया। इसके साथ ही फिर राजनीति में रिश्तों का पुराना अध्याय सामने आ
गया।
महाराष्ट्र में बाल ठाकरे-राज ठाकरे, वसंतदादा पाटील-विष्णुअण्णा पाटील, सुधाकरराव नाईक-वसंतराव नाईक और गोपीनाथ मुंडे-धनंजय मुंडे, ये उन चाचा-भतीजों की जोड़ियां हैं जिन्होंने रिश्तों की राजनीति में एक-दूसरे को पटखनी दी है। ताजा प्रहसन भारत राष्ट्र के महाराष्ट्र में चल रहा है। 72 हजार करोड़ रुपए के सिंचाई घोटाले में जिनका नाम उछला है वो कोई और नहीं राष्ट्रवादी कांग्रेस के सुप्रीमो, मराठा क्षत्रप और केंद्रीय कृषिमंत्री शरद पवार के भतीजे अजित पवार हैं, जिन्होंने गत दिनों उपमुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया है।
कहा जाता है कि अजित पवार ने यह इस्तीफा अपने काका शरद पवार के कहने पर ही दिया है, लेकिन अजित के इस्तीफे के बाद महाराष्ट्र की राजनीति में जो बवाल मचा है, वह क्या गुल खिलाएगा, यह आने वाले दिनों में स्पष्ट हो जाएगा। इस सिंचाई घोटाले के छींटे अजित पवार ही नहीं बल्कि भाजपा अध्यक्ष नितीन गडकरी और इंदौर के ख्यात संत भय्यू महाराज पर भी पड़े हैं। काका शरद पवार ने बाद में बड़ी चतुराई से ट्रम्प कार्ड फेंकते हुए कहा कि इन योजनाओं की मंजूरी विधान परिषद में तत्कालीन विपक्ष के नेता नितीन गडकरी की मांग के बाद दी गई थी।
अजित दादा ने (महाराष्ट्र में बड़े भाई को दादा बोला जाता है) 2009 में जून से अगस्त के बीच यह पराक्रम कर दिखाया। महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र की सिंचाई परियोजनाओं की 32 फाइलें अजीत पवार द्वारा केवल तीन महीनों में मंजूर की गई थी।
उस वक्त अजित पवार महाराष्ट्र के जल संसाधन मंत्री थे। सवाल उठना लाजिमी है कि आम तौर पर कछुए की चाल चलने वाली सरकारी मशीनरी अचानक खरगोश की माफिक सरपट क्यों दौड़ पड़ी? सवाल में छुपे संदेह अदालत के दरवाजे तक घोटाले के रूप में पहुंच गए हैं। नियमानुसार, परियोजनाओं की मंजूरी मंत्री से नहीं बल्कि विदर्भ सिंचाई विकास महामंडल से मिलना चाहिए थी। महाराष्ट्र में सिंचाई परियोजनाओं पर खर्च राज्यपाल की मंजूरी से होता है, परंतु अजित पवार ने अपने तईं ये मंजूरी दे दी।
सिंचाई विभाग के मुख्य अभियंता विजय पांढरे ने इस मामले में भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण को 15 पन्नों की रिपोर्ट सौंपी है। इस रिपोर्ट में पांढरे ने तफसील से बताया है कि पिछले दस सालों में नेताओं, अधिकारियों और ठेकेदारों ने सांठगांठ कर कम से कम 35 हजार करोड़ रुपए का चूना सरकारी तिजोरी को लगाया है। इस घोटाले के कारण सबसे ज्यादा नुकसान विदर्भ और कोंकण का हुआ है। अनेक सिंचाई परियोजनाओं पर तीन गुणा अधिक राशि खर्च हो गई है। इसका भार भी सरकारी खजाने पर पड़ा है पर सिंचाई के विकास कार्यो में कोई प्रगति नहीं हुई। इन इलाकों में अनेक गांव ऐसे हैं, जहां आज भी लोग पानी के लिए 63 किलोमीटर की दूरी तय करते हैं।
अब बात करते हैं मराठा क्षत्रप शरद पवार की, जिन्होंने अपने सेहरे तमाम बोर्ड, मंडल, कमेटियां बांध रखी हैं। सब जानते हैं कि पिछले एक दशक से उनकी नजरें प्रधानमंत्री पद पर गड़ी हुई हैं। उनके हाथ और दिमाग केंद्र की सत्ता को डगमगाने के लिए चलते रहते हैं और पैर 7 रेसकोर्स रोड की तरफ डग भरने को उतावले हैं। शरद पवार की राजनीति में एक बागी, विद्रोही छवि देखने को मिलती है। भूतकाल खंगाले तो 1977 में आपातकाल के बाद इंदिरा गांधी की अपमानजनक हार के बाद वे 1978 में कांग्रेस से अलग हो गए थे। आठ साल तक कांग्रेस से बाहर रहने के बाद 1986 में वे पुन: कांग्रेस में शामिल हो गए थे। उसके बाद 1999 में फिर कांग्रेस छोड़कर खुद अपनी पार्टी राष्ट्रवादी कांग्रेस की स्थापना की थी। पवार ने तब कांग्रेस छोड़ने के लिए सोनिया गांधी के विदेशी मूल को मुद्दा बनाया था। तब शरद पवार को उम्मीद थी कि सोनिया के विदेशी मूल का मुद्दा जोर पकड़ जाएगा, जनता कांग्रेस को नकार देगी और ऐसी स्थिति में लोकसभा त्रिशंकु होगी, तो प्रधानमंत्री पद के लिए वे प्रबल दावेदार होंगे, किंतु उनके दुर्भाग्य से ऐसा कुछ नहीं हुआ।
कांग्रेस के दिग्गज नेता स्व. अजरुनसिंह शरद पवार को भरोसमंद नहीं मानते थे। अजरुनसिंह ने अपनी आत्मकथा ‘ए ग्रेन ऑफ सेंड इन द ऑवरग्लास ऑफ टाईम ’में यह बात स्पष्ट रूप से कही है। वे जानने को उत्सुक थे कि शरद पवार का कांग्रेस से कब-कब मोहभंग होगा। अपनी आत्मकथा में अजरुनसिंह ने लिखा है कि उन्होंने 1986 में राजीव गांधी को चेताया था कि पवार का इतिहास किसी भी प्रकार से प्रेरणादायी नहीं है और वे किसी भी समय पार्टी से विद्रोह कर सकते हैं।
उसके बाद ही जब पवार ने राष्ट्रवादी कांग्रेस की स्थापना की थी तब भी अजरुनसिंह का साफ मानना था कि पवार की यह आखिरी हरकत नहीं है और वे किसी न किसी रूप में कांग्रेस के साथ सौदेबाजी करके ही दम लेंगे।
यूं देखा जाए तो कांग्रेस भी कम नहीं है। राष्ट्रवादी कांग्रेस के साथ पिछले 13 सालों से चल रहे इस गठजोड़ में शह और मात का खेल चलता ही आ रहा है। कांग्रेस से शरद पवार के नाराज होने के तमाम मौके कांग्रेस ने ही दिए हैं। महाराष्ट्र में पृथ्वीराज चव्हाण के गठबंधन की सरकार में वित्त और गृह जैसे महत्वपूर्ण विभागों पर जबसे कांग्रेस ने दावा ठोका है, तबसे पवार एंड कंपनी गुस्साई है।
बात यहीं नहीं रुकी, 2011 में उन्होंने पर्यावरण नियमों के उल्लंघन के लिए लवासा सिटी पर केस दाखिल करने के लिए हरी झंडी दे दी। पुणो शहर के पास एक पहाड़ी पर विकसित हो रहा यह शहर शरद पवार की कल्पना का स्वरूप है। पिछले साल ही रिजर्व बैंक ने महाराष्ट्र स्टेट को-ऑपरेटिव बैंक के नियामक मंडल को भंग कर दिया था। इस बैंक पर पिछले 17 सालों से अजित पवार का नियंत्रण था। चव्हाण ने बैंक के नियामक मंडल में अपनी पसंद के अधिकारियों को बैठा दिया, जिस कारण भी अजित पवार और उनके समर्थक भड़के हुए थे। शह और मात के इस खेल को चव्हाण ने पिछली 4 मई को यह घोषणा कर और भड़का दिया कि पिछले 10 सालों में राज्य द्वारा सिंचाई पर किए गए खर्च पर श्वेत-पत्र जाहिर करेंगे।
इस सबके बावजूद शरद पवार महाराष्ट्र की राजनीति के दिग्गज खिलाड़ी हैं। कब किससे हाथ मिलाना, दोस्ती गांठना और कब किसकी पीठ में खंजर भोंकना, किसे कितना और कैसे दबाना-शरद पवार यह भलीभांति जानते हैं। किसे लालबत्ती से नवाजना, किससे छीनना आदि तिकड़मों में उन्हें महारत हासिल है। उनके अब तक के राजनीतिक कॅरियर में दृष्टिगोचर हुई तमाम पैंतरेबाजी को देखकर ऐसा लगता है कि वे राजनीति शास्त्र के किसी रिसर्च स्कॉलर के लिए एक बढ़िया विषय हो सकते हैं। यूपीए-2 में भी उन्होंने सरकार में सेकेंड पोजीशन के लिए दबाव बनाया था और उस कारण कांग्रेस में थोड़े दिनों तक ऊहापोह की स्थिति निर्मित हो गई थी।
पवार की राजनीतिक कुंडली और इतिहास को देखते हुए कांग्रेस आज भी इस बात को लेकर चिंतित हैं कि सन् 2014 में होने वाले आम चुनाव में पवार भाजपा के साथ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष गठबंधन कर सकते हैं और कांग्रेस की यह चिंता अब पवार की चिंता बन गई है, क्योंकि सिंचाई घोटाले में भतीजे अजित पर आरोप लगने से उनकी और पार्टी की ही किरकिरी हुई है। राष्ट्रवादी नेताओं के इस आरोप में दम लगता है कि कांग्रेस उनके नेताओं को सुनियोजित रूप से फंसाने में जुटी है, किंतु सवाल ये है कि आखिर एनसीपी नेता भी कहां पाक-साफ हैं।
अजित पवार के उप मुख्यमंत्री पद से इस्तीफे के बाद देश की मायानगरी मुंबई खदबदाती रही। अजित पवार के समर्थन में एनसीपी के 19 मंत्रियों ने फौरन अपने इस्तीफे दे दिए तो उधर 13 निर्दलीय विधायकों ने भी अजित पवार के समर्थन में इस्तीफा देने की मंशा जताई, मगर हम जानते हैं कि राजनीति में कोई किसी का सगा नहीं होता। घोटाले-दर-घोटाले यहां-वहां सर्वत्र घटित हो रहे हैं। घोटालों का पानी सिर के ऊपर से सतत् बह रहा है। आखिर, हमारे नेता हमें कब भ्रष्टाचारमुक्त, घपले-घोटाले मुक्त शासन-प्रशासन दे पाएंगे? भगवान ही जानता है।
महाराष्ट्र में बाल ठाकरे-राज ठाकरे, वसंतदादा पाटील-विष्णुअण्णा पाटील, सुधाकरराव नाईक-वसंतराव नाईक और गोपीनाथ मुंडे-धनंजय मुंडे, ये उन चाचा-भतीजों की जोड़ियां हैं जिन्होंने रिश्तों की राजनीति में एक-दूसरे को पटखनी दी है। ताजा प्रहसन भारत राष्ट्र के महाराष्ट्र में चल रहा है। 72 हजार करोड़ रुपए के सिंचाई घोटाले में जिनका नाम उछला है वो कोई और नहीं राष्ट्रवादी कांग्रेस के सुप्रीमो, मराठा क्षत्रप और केंद्रीय कृषिमंत्री शरद पवार के भतीजे अजित पवार हैं, जिन्होंने गत दिनों उपमुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया है।
कहा जाता है कि अजित पवार ने यह इस्तीफा अपने काका शरद पवार के कहने पर ही दिया है, लेकिन अजित के इस्तीफे के बाद महाराष्ट्र की राजनीति में जो बवाल मचा है, वह क्या गुल खिलाएगा, यह आने वाले दिनों में स्पष्ट हो जाएगा। इस सिंचाई घोटाले के छींटे अजित पवार ही नहीं बल्कि भाजपा अध्यक्ष नितीन गडकरी और इंदौर के ख्यात संत भय्यू महाराज पर भी पड़े हैं। काका शरद पवार ने बाद में बड़ी चतुराई से ट्रम्प कार्ड फेंकते हुए कहा कि इन योजनाओं की मंजूरी विधान परिषद में तत्कालीन विपक्ष के नेता नितीन गडकरी की मांग के बाद दी गई थी।
अजित दादा ने (महाराष्ट्र में बड़े भाई को दादा बोला जाता है) 2009 में जून से अगस्त के बीच यह पराक्रम कर दिखाया। महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र की सिंचाई परियोजनाओं की 32 फाइलें अजीत पवार द्वारा केवल तीन महीनों में मंजूर की गई थी।
उस वक्त अजित पवार महाराष्ट्र के जल संसाधन मंत्री थे। सवाल उठना लाजिमी है कि आम तौर पर कछुए की चाल चलने वाली सरकारी मशीनरी अचानक खरगोश की माफिक सरपट क्यों दौड़ पड़ी? सवाल में छुपे संदेह अदालत के दरवाजे तक घोटाले के रूप में पहुंच गए हैं। नियमानुसार, परियोजनाओं की मंजूरी मंत्री से नहीं बल्कि विदर्भ सिंचाई विकास महामंडल से मिलना चाहिए थी। महाराष्ट्र में सिंचाई परियोजनाओं पर खर्च राज्यपाल की मंजूरी से होता है, परंतु अजित पवार ने अपने तईं ये मंजूरी दे दी।
सिंचाई विभाग के मुख्य अभियंता विजय पांढरे ने इस मामले में भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण को 15 पन्नों की रिपोर्ट सौंपी है। इस रिपोर्ट में पांढरे ने तफसील से बताया है कि पिछले दस सालों में नेताओं, अधिकारियों और ठेकेदारों ने सांठगांठ कर कम से कम 35 हजार करोड़ रुपए का चूना सरकारी तिजोरी को लगाया है। इस घोटाले के कारण सबसे ज्यादा नुकसान विदर्भ और कोंकण का हुआ है। अनेक सिंचाई परियोजनाओं पर तीन गुणा अधिक राशि खर्च हो गई है। इसका भार भी सरकारी खजाने पर पड़ा है पर सिंचाई के विकास कार्यो में कोई प्रगति नहीं हुई। इन इलाकों में अनेक गांव ऐसे हैं, जहां आज भी लोग पानी के लिए 63 किलोमीटर की दूरी तय करते हैं।
अब बात करते हैं मराठा क्षत्रप शरद पवार की, जिन्होंने अपने सेहरे तमाम बोर्ड, मंडल, कमेटियां बांध रखी हैं। सब जानते हैं कि पिछले एक दशक से उनकी नजरें प्रधानमंत्री पद पर गड़ी हुई हैं। उनके हाथ और दिमाग केंद्र की सत्ता को डगमगाने के लिए चलते रहते हैं और पैर 7 रेसकोर्स रोड की तरफ डग भरने को उतावले हैं। शरद पवार की राजनीति में एक बागी, विद्रोही छवि देखने को मिलती है। भूतकाल खंगाले तो 1977 में आपातकाल के बाद इंदिरा गांधी की अपमानजनक हार के बाद वे 1978 में कांग्रेस से अलग हो गए थे। आठ साल तक कांग्रेस से बाहर रहने के बाद 1986 में वे पुन: कांग्रेस में शामिल हो गए थे। उसके बाद 1999 में फिर कांग्रेस छोड़कर खुद अपनी पार्टी राष्ट्रवादी कांग्रेस की स्थापना की थी। पवार ने तब कांग्रेस छोड़ने के लिए सोनिया गांधी के विदेशी मूल को मुद्दा बनाया था। तब शरद पवार को उम्मीद थी कि सोनिया के विदेशी मूल का मुद्दा जोर पकड़ जाएगा, जनता कांग्रेस को नकार देगी और ऐसी स्थिति में लोकसभा त्रिशंकु होगी, तो प्रधानमंत्री पद के लिए वे प्रबल दावेदार होंगे, किंतु उनके दुर्भाग्य से ऐसा कुछ नहीं हुआ।
कांग्रेस के दिग्गज नेता स्व. अजरुनसिंह शरद पवार को भरोसमंद नहीं मानते थे। अजरुनसिंह ने अपनी आत्मकथा ‘ए ग्रेन ऑफ सेंड इन द ऑवरग्लास ऑफ टाईम ’में यह बात स्पष्ट रूप से कही है। वे जानने को उत्सुक थे कि शरद पवार का कांग्रेस से कब-कब मोहभंग होगा। अपनी आत्मकथा में अजरुनसिंह ने लिखा है कि उन्होंने 1986 में राजीव गांधी को चेताया था कि पवार का इतिहास किसी भी प्रकार से प्रेरणादायी नहीं है और वे किसी भी समय पार्टी से विद्रोह कर सकते हैं।
उसके बाद ही जब पवार ने राष्ट्रवादी कांग्रेस की स्थापना की थी तब भी अजरुनसिंह का साफ मानना था कि पवार की यह आखिरी हरकत नहीं है और वे किसी न किसी रूप में कांग्रेस के साथ सौदेबाजी करके ही दम लेंगे।
यूं देखा जाए तो कांग्रेस भी कम नहीं है। राष्ट्रवादी कांग्रेस के साथ पिछले 13 सालों से चल रहे इस गठजोड़ में शह और मात का खेल चलता ही आ रहा है। कांग्रेस से शरद पवार के नाराज होने के तमाम मौके कांग्रेस ने ही दिए हैं। महाराष्ट्र में पृथ्वीराज चव्हाण के गठबंधन की सरकार में वित्त और गृह जैसे महत्वपूर्ण विभागों पर जबसे कांग्रेस ने दावा ठोका है, तबसे पवार एंड कंपनी गुस्साई है।
बात यहीं नहीं रुकी, 2011 में उन्होंने पर्यावरण नियमों के उल्लंघन के लिए लवासा सिटी पर केस दाखिल करने के लिए हरी झंडी दे दी। पुणो शहर के पास एक पहाड़ी पर विकसित हो रहा यह शहर शरद पवार की कल्पना का स्वरूप है। पिछले साल ही रिजर्व बैंक ने महाराष्ट्र स्टेट को-ऑपरेटिव बैंक के नियामक मंडल को भंग कर दिया था। इस बैंक पर पिछले 17 सालों से अजित पवार का नियंत्रण था। चव्हाण ने बैंक के नियामक मंडल में अपनी पसंद के अधिकारियों को बैठा दिया, जिस कारण भी अजित पवार और उनके समर्थक भड़के हुए थे। शह और मात के इस खेल को चव्हाण ने पिछली 4 मई को यह घोषणा कर और भड़का दिया कि पिछले 10 सालों में राज्य द्वारा सिंचाई पर किए गए खर्च पर श्वेत-पत्र जाहिर करेंगे।
इस सबके बावजूद शरद पवार महाराष्ट्र की राजनीति के दिग्गज खिलाड़ी हैं। कब किससे हाथ मिलाना, दोस्ती गांठना और कब किसकी पीठ में खंजर भोंकना, किसे कितना और कैसे दबाना-शरद पवार यह भलीभांति जानते हैं। किसे लालबत्ती से नवाजना, किससे छीनना आदि तिकड़मों में उन्हें महारत हासिल है। उनके अब तक के राजनीतिक कॅरियर में दृष्टिगोचर हुई तमाम पैंतरेबाजी को देखकर ऐसा लगता है कि वे राजनीति शास्त्र के किसी रिसर्च स्कॉलर के लिए एक बढ़िया विषय हो सकते हैं। यूपीए-2 में भी उन्होंने सरकार में सेकेंड पोजीशन के लिए दबाव बनाया था और उस कारण कांग्रेस में थोड़े दिनों तक ऊहापोह की स्थिति निर्मित हो गई थी।
पवार की राजनीतिक कुंडली और इतिहास को देखते हुए कांग्रेस आज भी इस बात को लेकर चिंतित हैं कि सन् 2014 में होने वाले आम चुनाव में पवार भाजपा के साथ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष गठबंधन कर सकते हैं और कांग्रेस की यह चिंता अब पवार की चिंता बन गई है, क्योंकि सिंचाई घोटाले में भतीजे अजित पर आरोप लगने से उनकी और पार्टी की ही किरकिरी हुई है। राष्ट्रवादी नेताओं के इस आरोप में दम लगता है कि कांग्रेस उनके नेताओं को सुनियोजित रूप से फंसाने में जुटी है, किंतु सवाल ये है कि आखिर एनसीपी नेता भी कहां पाक-साफ हैं।
अजित पवार के उप मुख्यमंत्री पद से इस्तीफे के बाद देश की मायानगरी मुंबई खदबदाती रही। अजित पवार के समर्थन में एनसीपी के 19 मंत्रियों ने फौरन अपने इस्तीफे दे दिए तो उधर 13 निर्दलीय विधायकों ने भी अजित पवार के समर्थन में इस्तीफा देने की मंशा जताई, मगर हम जानते हैं कि राजनीति में कोई किसी का सगा नहीं होता। घोटाले-दर-घोटाले यहां-वहां सर्वत्र घटित हो रहे हैं। घोटालों का पानी सिर के ऊपर से सतत् बह रहा है। आखिर, हमारे नेता हमें कब भ्रष्टाचारमुक्त, घपले-घोटाले मुक्त शासन-प्रशासन दे पाएंगे? भगवान ही जानता है।
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