मंगलवार, 25 सितंबर 2012

बंद करो, ये बंद का सिलसिला

एक बार और भारत को बंद का सामना करना पड़ा। गुरुवार 20 सितंबर के बंद का आह्वान एफडीआई और डीजल के दामों में वृद्धि के खिलाफ एनडीए खासतौर पर भाजपा ने किया था, लिहाजा भाजपा शासित राज्यों में बंद का असर दिखा और बाकी जगह खास नहीं। लाख टके का सवाल है कि इस बंद से फायदा किसको हुआ? किसी को नहीं ना! फिर नुकसान किसका हुआ? देश का, देश के लोगों का! राजनीतिक दलों पर कुछ भी असर नहीं पड़ता। आखिर फजीहत होती है आम लोगों की, जनता की।

हमारे देश में लोकतंत्र है और संविधान ने हमें विरोध करने का अधिकार भी दिया है, मगर सवाल यह है कि ऐसे कितने बंद होते हैं, जिनमें लोगों की सक्रिय भागीदारी होती है या लोग सक्रिय रूप से जुड़े होते हैं? ज्यादातर बंद तो थोपे गए या लादे गए होते हैं। लोगों की इच्छा को कोई नहीं पूछता। देश के तमाम लोगों को यह भी नहीं पता था कि गुरुवार का बंद था किसलिए।

बंद के बाद फौरन समाचार आता है कि बंद से देश को इतने करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। गुरुवार के बंद से देश को लगभग साढ़े 12 हजार करोड़ का नुकसान हुआ। हमेशा बंद से होने वाले नुकसान का आंकड़ा अंदाजन होता है, वह थोड़ा सच्चा और थोड़ा झूठा भी हो सकता है, लेकिन लोगों का जो नुकसान होता है, उसकी सुध कोई नहीं लेता। बंद के कारण उद्योग-धंधे प्रभावित होते हैं और तमाम ऐसे लोगों की फजीहत होती है जो रोज की कमाई रोज खाते हैं। कभी कोई ऐसे लोगों की खबर नहीं लेता कि बंद के कारण कितने लोग भूखे सोए। दवा की दुकान यानी मेडिकल स्टोर्स को बंद से मुक्त रखने का मानवीय दृष्टिकोण अब सामने आया है, लेकिन ट्रेन-बस रोक देने से कितने बुजुर्गो, महिलाओं को परेशानी होती है और कई लोग इंटरव्यू या जरूरी काम से वंचित हो जाते हैं। ऐसे आंकड़े कभी बाहर नहीं आते।
विरोध के लिए बंद का शस्त्र प्रभावी और असरकारक है, इसमें कोई दो मत नहीं, लेकिन केवल किसी राजनीतिक दल का ही नहीं, बल्कि लोगों की भी उसमें शत-प्रतिशत भागीदारी होनी चाहिए। अब ज्यादातर बंद राजनीतिक ही होते हैं। 

इस बंद का ऐलान भाजपा ने किया था और राजग के घटक दलों ने उसे समर्थन दिया था, इसलिए भाजपा शासित राज्यों मप्र, गुजरात, छत्तीसगढ़ में उसका असर देखने को मिला, लेकिन बाकी हिस्सों में बंद का व्यापक असर नहीं देखा गया। ज्यादातर लोग बंद का नाम सुनते ही अपनी दुकानें, संस्थान, स्कूल, कॉलेज इसलिए बंद रखने का तय कर लेते हैं कि वे किसी फजीहत में नहीं पड़ना चाहते, तोड़फोड़ की जोखिम नहीं उठाना चाहते। न वे किसी की नजर में चढ़ना चाहते हैं न किसी की नजर में उतरना चाहते हैं। राजनीतिक दल यदि बंद के ऐलान के साथ ही यह घोषणा कर दें कि बंद स्वैच्छिक होगा, जिसे अपना कारोबार खुला रखना है वो खुला रख सकता है, तो पता चल जाएगा कि कितने लोग उस बंद को समर्थन देते हैं?

अब बंद कराने के लिए जत्थों को सड़कों, बाजारों में दौड़ाना पड़ता है। हाथ में पत्थर लिए ये जत्थे बाजार में निकलते हैं। पहले हाथ जोड़कर विनती की जाती है कि भाई साहब बंद कर दो, भाई साहब नहीं माने तो पीछे से पत्थर निकल पड़ता है दुकान पर। भाजपा के इस बंद की एक और खासियत यह थी कि उसके सहयोगी दल शिवसेना ने इस बंद में शामिल होने से इनकार कर दिया था, इसलिए कि महाराष्ट्र में गणोशोत्सव चल रहे हैं। चलिए इसी बहाने विघ्नहर्ता ने गुरुवार को आम लोगों के विघ्न हर लिए। 

हर एक राज्य के नेताओं ने अपनी सुविधानुसार जवाब दिया कि हमें बंद में शामिल होना चाहिए या नहीं। शिवसेना ने भी इस बहाने यह साबित कर दिया है कि अगर शिवसेना न चाहे तो मुंबई कोई बंद नहीं करा सकता। तमिलनाडु में डीएमके यूपीए के साथ गठबंधन में है, लेकिन उसने जाहिर किया कि वे बंद में शामिल होंगे। टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले के बाद से डीएमके कांग्रेस और यूपीए से नाराज है। ममता बैनर्जी ने यूपीए को बाय-बाय कर दिया है, इसलिए डीएमके ने नखरे दिखाने शुरू कर दिए हैं। करुणानिधि समझ गए हैं कि अब तमिलनाडु में उनके दिन लद गए हैं। बंद में शामिल होकर उन्होंने इशारा कर ही दिया है कि वे भी ममता की राह पकड़ सकते हैं। अब ऐसी स्थिति में आम आदमी कहां से आएगा? हर एक पार्टी को, हर नेता को अपने गोल सेट करने हैं। ऐसे में आम लोगों को उनके खेल में पिसना ही है।

जहां तक एफडीआई की बात है, देश में विदेशी निवेश की जरूरत तो है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है। केंद्र सरकार ने कुछ शर्ते डालकर मल्टी ब्रांड रिटेल में 51 प्रतिशत विदेशी निवेश की अनुमति दी है। इसके साथ ही सिंगल ब्रांड रिटेल में 100 प्रतिशत निवेश को हरी झंडी दी है। इस कारण देश में करीब 100 अरब डॉलर विदेशी निवेश आना है। स्वाभाविक है कि इस कारण स्पर्धा बढ़ेगी और देश में किराना के क्षेत्र में सक्रिय व्यापारियों को अपने माल की गुणवत्ता और सेवा बेहतर रखनी होगी। इसके अलावा कीमतें भी वाजिब रखनी होंगी। अर्थात ग्राहक को अच्छी सेवा देने के साथ ही अब उसे ठगने के मौके आसान नहीं होंगे। रसोई गैस पर राशनिंग कर सरकार ने एक अच्छा कदम उठाया है, तो डीजल में 5 रुपए लीटर की वृद्धि करने से 2013 में केंद्र सरकार की 200 अरब रुपए की सब्सिडी की रकम बचेगी।

इन दिनों बंद भी आंदोलन न होकर इवेंट हो गया है। पहले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को बुलाया जाता है और फिर कैमरे के सामने हलचल शुरू होती है। छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा नेता तब तक हरकत में नहीं आता, जब तक कैमरे वाले नहीं आ जाते, फिर पुतला दहन हो या भाषण, रेल रोकने की कार्रवाई या दुकान बंद कराने की रस्म अदायगी, सब कुछ कैमरे के सामने ही होती है। बिहार में तो बंद समर्थकों ने गजब किया, जब मीडिया के कैमरों का मुंह रेलवे की ओर मुड़े तब नेता और कार्यकर्ता रेल रोकने के लिए दौड़ पड़े। कैमरे के सामने नेता ही नेता दिखते हैं, जनता तो दिखती ही नहीं है। उसमें यह सवाल भी उठता है कि ऐसे बंद नेताओं का चेहरा चमकाने के लिए होता है या वाकई जनता की समस्याओं को हल करने के लिए।

पिछले कुछ समय में देश में अनेक महत्वपूर्ण घटनाएं घटित हुई हैं। इनमें कोयला घोटाला, डीजल में 5 रुपए प्रति लीटर की वृद्धि, एफडीआई को मंजूरी, रसोई गैस की राशनिंग, ममता की यूपीए से समर्थन वापसी, कोयला घोटाले के कारण विपक्षियों ने संसद चलने नहीं दी। संसद का मानसून सत्र हंगामे और बवाल की बलि चढ़ गया। देश के लोगों का फायदा हो, ऐसा कुछ संसद में नहीं हुआ। अब तो कोयला घोटाला भी साइड लाइन हो गया है।

हमारे गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे भले ही बड़बोलेपन में ये बोल गए हों कि लोग थोड़े दिनों में ये कोइला-वोइला सब भूल जाएंगे, जैसे बोफोर्स को भूल गए, वैसे ही। शिंदे जैसे तमाम नेता इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि लोगों की स्मरण शक्ति बहुत कम होती है और दूसरी बात यह कि लोगों को अपनी ही चिंता बहुत है, इसलिए इन सब चीजों के लिए उनके पास समय नहीं है। नेतागण किसी न किसी तरह से अपनी खिचड़ी पकाते रहते हैं। ऐसे बंद से राजनीतिक दलों को तो यही देखना है कि उनका वोट बैंक कितना मजबूत होगा? 2014 में लोकसभा चुनाव होने हैं, तब तक ऐसे राजनीतिक ड्रामे चलते ही रहना है। क्या कोई राजनीतिक दल अपने घोषणा-पत्र में यह ऐलान कर पाएगा कि हम बंद का ऐलान कर लोगों को परेशान नहीं करेंगे। आखिर ऐसे बंद से किसी का फायदा हो या न हो, नुकसान देश का, देश के धन का, संपत्ति का और आम लोगों का ही होता है, तो क्यों नहीं हमारे नेतागण इस बारे में विचार करने की जरूरत समझते हैं।

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