कोयला ब्लॉक आवंटन में हुए भ्रष्टाचार पर कैग यानी कंट्रोलर जनरल एंड ऑडिटर
जनरल ऑफ इंडिया ने ऊंगली क्या उठाई सत्तारूढ़ कांग्रेस के खिलाफ विरोधियों
ने, खासतौर पर भाजपा ने मोर्चा खोल दिया। कैग की रिपोर्ट से कांग्रेस के
असहमत होने की बात भी समझने लायक है, किंतु इस संवैधानिक संस्था पर गलत
तरीके से टीका-टिप्पणी करना, यह समझ से परे है।
खुद प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने ही इसकी शुरुआत की और उसके बाद कांग्रेस नेता कैग के पीछे पड़ गए। इनमें अनेक केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्री भी पीछे नहीं रहे। सत्ताधारी दल की ओर से ही संवैधानिक संस्था पर ऐसी टीका-टिप्पणी किसी भी दृष्टि से लोकतंत्र के भविष्य के लिए उचित नहीं कही जा सकती।
पहले यह जान लेना उचित होगा कि कैग यानी भारत के महानियंत्रक और महालेखा परीक्षक ये व्यक्ति है या संस्था? हकीकत में वे दोनों ही है। संविधान के अनुच्छेद 148 के मुताबिक उनका चयन किया जाता है। भारत में कैग की नियुक्ति आजादी के पहले से होती आई है। सन् 1860 में भारत के पहले कैग की नियुक्ति तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने की थी। आजादी के बाद उसे संवैधानिक संस्था के रूप में स्वीकार किया गया।
प्रधानमंत्री पद की ही माफिक कैग भी संवैधानिक है। डेढ़ सौ साल पूर्व से अस्तित्व में आई इस संस्था को प्रशासनिक ढांचे में शामिल करते हुए संविधान निर्माता डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने कैग का जो वर्णन किया था, वह सभी राजनीतिक दलों को ध्यान में रखना चाहिए और उसे गंभीरता से लेना चाहिए। डॉ. आंबेडकर ने कैग को भारत के राज-कोष यानी सरकारी तिजोरी का पालक, अभिभावक बताया है। उन्होंने यह भी कहा था कि कैग के लिए भारतीय संविधान के तहत नियुक्त किए जाने वाले अधिकारी को सबसे बड़ा अधिकारी मानना चाहिए। ताजा संदर्भ में कांग्रेस ने कैग के खिलाफ जो आरोपों का कीचड़ उछाला वह दुर्भाग्यपूर्ण ही है।
सवाल यह है कि संवैधानिक पद पर आसीन खुद प्रधानमंत्री ने दूसरी संवैधानिक संस्था कैग पर ही सार्वजनिक टीका कर दी। यह स्थिति संवैधानिक शासन प्रणाली के भविष्य को लेकर ठीक नहीं कही जा सकती। कांग्रेस नेताओं का आरोप है कि कैग अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर जाकर अतिक्रमण कर रही है। क्या वाकई कैग ने अतिक्रमण किया है? पिछले अनेक सालों तक कैग की रिपोर्ट ऑडिट और एकाउंट तक ही सीमित रहती थी। संसद में उस पर मतदान होता था। इस रिपोर्ट पर संसद की लोक लेखा समिति अध्ययन के बाद कुछ सलाह देती थी।
हाल के कुछ सालों में, खासतौर पर कैग ने अपनी रिपोर्ट में कुछ बदलाव किया है। परफॉर्मेस ऑडिट में सरकार की नीतियों पर अमल करने के तरीकों और उनमें हुई त्रुटियों पर कैग ने टीका करना शुरू किया है, तब से सरकारी हल्कों में यह चीख-पुकार जारी है कि कैग अपने अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण कर रहा है। केवल नीतियों के क्रियान्वयन के तरीकों से राज-कोष को नुकसान हो रहा है, इस कारण गलती दिखाना अपने अधिकार-क्षेत्र में होने का स्पष्टीकरण भी कैग ने दिया है।
ऐसी स्थिति में कैग की भूमिका क्या होना चाहिए? इस बाबत दो दृष्टिकोण हैं। एक दृष्टिकोण यह कि कैग ऐसी परीक्षक संस्था है जिसका काम जांच करना नहीं है। सैद्धांतिक दृष्टि से इसे योग्य माना जाता जा सकता है पर व्यावहारिक दृष्टि से त्रुटियां होने पर उनकी जांच करना भी जरूरी है। कैग लेखा परीक्षण की मर्यादा भी बढ़ाता है और निवेश की जरूरत व दूसरी वैकल्पिक नीतियों के परिणामों को भी खोजते हैं, तब अधिकार क्षेत्र के बाहर जाने या अतिक्रमण करने की टीका स्वाभाविक ही है। ऐसी टीकाओं को महत्व देने की जरूरत नहीं है, क्योंकि उचित और उत्कृष्ट लेखा परीक्षण में इन बातों को शामिल किया ही जाना चाहिए।
दूसरे दृष्टिकोण के अंतर्गत, ऐसा माना जाता है कि भारत में कैग की स्थापना नियंत्रक और महा लेखा परीक्षक-ऐसे दो स्वरूप में की गई है, पर व्यवहार में कैग केवल महा लेखा परीक्षक की भूमिका ही निभा रहे हैं। इस बारे में भारत और ब्रिटेन में बहुत बड़ा फर्क है। ब्रिटिश कैग को ये दोनों ही अधिकार प्राप्त हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो कार्यपालिका यानी सरकार कैग की अनुमति के बिना राज-कोष से पैसा नहीं निकाल सकती है।
भारत में कैग को यह अधिकार नहीं है। इस कारण कैग खुद कोई निर्णय नहीं कर सकता है और राज-कोष को हुए नुकसान की भरपाई संबंधित अधिकारी से करने, उस पर कार्रवाई करने के कदम नहीं उठाए जा सकते हैं। 1971 के कैग कानून के अनुसार, कैग द्वारा मांगी गई जानकारी विभागीय अधिकारियों को देना बंधनकारक है। इसके साथ ही पूछे गए सवालों के जवाब देना भी बंधनकारक है। संबंधित अधिकारी द्वारा इसमें लापरवाही बरते जाने पर उसके बाबत अपनी लेखा रिपोर्ट में उल्लेख करने के सिवाय कोई विकल्प कैग के पास रहता नहीं है।
भारत एक प्रगतिशील देश है। अर्थव्यवस्था में जरा सा भी बदलाव हलचल मचाने के लिए पर्याप्त है। ऐसी स्थिति में जब कैग ने अपनी रिपोर्ट में लगभग 3 लाख करोड़ की हानि दर्शाई है तो वह बात उस बहस का मुद्दा नहीं है, जिस पर विपक्षी दलों ने केंद्र को निशाने पर रखा। कैग की रिपोर्ट से साफ जाहिर हो रहा है कि यदि हम उचित तरीके से यदि कोल ब्लॉक की नीलामी के जरिए आवंटन करते तो हमें 1.86 लाख करोड़ का फायदा हो सकता था। यह राशि सरकारी खजाने में जमा होती तो देश तरक्की के रास्ते में एक कदम और बढ़ा सकता था। यदि भारत में भी ब्रिटेन की भांति कैग को यह अधिकार होता कि सरकार किसी भी आर्थिक मसले पर उसका निर्णय मानती तो शायद कोल ब्लॉक घोटाला जैसी कोई घटना नहीं होती। कोल ब्लॉक आवंटन में उचित प्रक्रिया न अपनाने की गलती को स्वीकारने की बजाए कैग पर अपनी सीमा से बाहर जाकर उसके काम को अतिक्रमण जताना स्वाभाविक रूप से अमान्य है।
सरकार ने भी अपनी गलती स्वीकारने की जगह पुराने नियमों का हवाला दिया, साथ ही उसने उस प्रक्रिया को बिलकुल सही ठहराने की कोशिश की जिसकी वजह से देश को कोल ब्लॉक से फायदा होना था वह नहीं हो सका। इस कोल ब्लॉक आवंटन में हुए कथित घोटाले का एक और बुरा असर सामने आया और वह था संसद का लगातार 13 दिनों तक ठप रहना। यह 13 दिन देश के लिए अहम थे जब कई विधेयक संसद में पेश होने की बाट जोह रहे थे। संसद का यह मानसून सत्र एक रिकॉर्ड कायम कर गया सबसे कम काम करने का। हम अपने उन नीति नियंताओं से अब क्या उम्मीद कर सकते थे जिन्हें चुनकर हमनें संसद तक पहुंचाया जिसमें से एक दल ने कोल घोटाले के जरिए परोक्ष रूप से देश का नुकसान किया तो दूसरे ने संसद का काम ठप कर अपरोक्ष रूप से देश को हानि पहुंचाई।
संविधान संशोधन समिति ने सिफारिश की है कि कैग को चुनाव आयोग की ही तरह बहुसदस्यीय आडिट आयोग का दर्जा दिया जाए, उसके सदस्यों को संवैधानिक दर्जा दिया जाए और कार्यकाल अभी जैसा ही रखा जाए। यह भी सिफारिश की गई है कि कैग को सरकार की प्रशासनिक कार्य पद्धति का हिस्सा बनाया जाए और उसे संसदीय समर्थन भी दिया जाए। इसके साथ ही हमारे यहां कैग की रिपोर्ट का बाह्य परीक्षण करने की व्यवस्था नहीं है, जबकि ब्रिटेन में वह है। इसके पीछे मकसद यह कि दूसरों के कार्यो पर ऊंगली उठाने वाली संस्था खुद भी व्यावसायिक और दोषरहित होना चाहिए। ऑडिट में कैग द्वारा अपनाई गई प्रणाली पर शिकायत उचित भी हो सकती है।
आखिर, कैग एक अर्थशास्त्री के नजरिए से तो सब देखते नहीं हैं। हकीकत में, तो कैग को आर्थिक कुशलता की दृष्टि से समृद्ध बनाने का वक्त आ गया है। उसे नियंत्रक की जिम्मेदारी भी सौंपी जाना चाहिए। संसद को भी उत्तरदायी बनाया जाना चाहिए। सरकार और शासन-व्यवस्था पर से लोगों का जो विश्वास उठते जा रहा है, उसके चलते कैग का असली चेहरा जनता के सामने लाने के फेर में पड़ने के बजाय, अर्थात कैग के अधिकारी की मर्यादा, अधिकार स्पष्ट करने के बजाय या उस पर चाहे जो आरोप चस्पा करते बैठने के बजाय राज-कोष के खर्च का नियंत्रक यानी कंट्रोलर बनाए जाने का वक्त आ गया है।
खुद प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने ही इसकी शुरुआत की और उसके बाद कांग्रेस नेता कैग के पीछे पड़ गए। इनमें अनेक केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्री भी पीछे नहीं रहे। सत्ताधारी दल की ओर से ही संवैधानिक संस्था पर ऐसी टीका-टिप्पणी किसी भी दृष्टि से लोकतंत्र के भविष्य के लिए उचित नहीं कही जा सकती।
पहले यह जान लेना उचित होगा कि कैग यानी भारत के महानियंत्रक और महालेखा परीक्षक ये व्यक्ति है या संस्था? हकीकत में वे दोनों ही है। संविधान के अनुच्छेद 148 के मुताबिक उनका चयन किया जाता है। भारत में कैग की नियुक्ति आजादी के पहले से होती आई है। सन् 1860 में भारत के पहले कैग की नियुक्ति तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने की थी। आजादी के बाद उसे संवैधानिक संस्था के रूप में स्वीकार किया गया।
प्रधानमंत्री पद की ही माफिक कैग भी संवैधानिक है। डेढ़ सौ साल पूर्व से अस्तित्व में आई इस संस्था को प्रशासनिक ढांचे में शामिल करते हुए संविधान निर्माता डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने कैग का जो वर्णन किया था, वह सभी राजनीतिक दलों को ध्यान में रखना चाहिए और उसे गंभीरता से लेना चाहिए। डॉ. आंबेडकर ने कैग को भारत के राज-कोष यानी सरकारी तिजोरी का पालक, अभिभावक बताया है। उन्होंने यह भी कहा था कि कैग के लिए भारतीय संविधान के तहत नियुक्त किए जाने वाले अधिकारी को सबसे बड़ा अधिकारी मानना चाहिए। ताजा संदर्भ में कांग्रेस ने कैग के खिलाफ जो आरोपों का कीचड़ उछाला वह दुर्भाग्यपूर्ण ही है।
सवाल यह है कि संवैधानिक पद पर आसीन खुद प्रधानमंत्री ने दूसरी संवैधानिक संस्था कैग पर ही सार्वजनिक टीका कर दी। यह स्थिति संवैधानिक शासन प्रणाली के भविष्य को लेकर ठीक नहीं कही जा सकती। कांग्रेस नेताओं का आरोप है कि कैग अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर जाकर अतिक्रमण कर रही है। क्या वाकई कैग ने अतिक्रमण किया है? पिछले अनेक सालों तक कैग की रिपोर्ट ऑडिट और एकाउंट तक ही सीमित रहती थी। संसद में उस पर मतदान होता था। इस रिपोर्ट पर संसद की लोक लेखा समिति अध्ययन के बाद कुछ सलाह देती थी।
हाल के कुछ सालों में, खासतौर पर कैग ने अपनी रिपोर्ट में कुछ बदलाव किया है। परफॉर्मेस ऑडिट में सरकार की नीतियों पर अमल करने के तरीकों और उनमें हुई त्रुटियों पर कैग ने टीका करना शुरू किया है, तब से सरकारी हल्कों में यह चीख-पुकार जारी है कि कैग अपने अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण कर रहा है। केवल नीतियों के क्रियान्वयन के तरीकों से राज-कोष को नुकसान हो रहा है, इस कारण गलती दिखाना अपने अधिकार-क्षेत्र में होने का स्पष्टीकरण भी कैग ने दिया है।
ऐसी स्थिति में कैग की भूमिका क्या होना चाहिए? इस बाबत दो दृष्टिकोण हैं। एक दृष्टिकोण यह कि कैग ऐसी परीक्षक संस्था है जिसका काम जांच करना नहीं है। सैद्धांतिक दृष्टि से इसे योग्य माना जाता जा सकता है पर व्यावहारिक दृष्टि से त्रुटियां होने पर उनकी जांच करना भी जरूरी है। कैग लेखा परीक्षण की मर्यादा भी बढ़ाता है और निवेश की जरूरत व दूसरी वैकल्पिक नीतियों के परिणामों को भी खोजते हैं, तब अधिकार क्षेत्र के बाहर जाने या अतिक्रमण करने की टीका स्वाभाविक ही है। ऐसी टीकाओं को महत्व देने की जरूरत नहीं है, क्योंकि उचित और उत्कृष्ट लेखा परीक्षण में इन बातों को शामिल किया ही जाना चाहिए।
दूसरे दृष्टिकोण के अंतर्गत, ऐसा माना जाता है कि भारत में कैग की स्थापना नियंत्रक और महा लेखा परीक्षक-ऐसे दो स्वरूप में की गई है, पर व्यवहार में कैग केवल महा लेखा परीक्षक की भूमिका ही निभा रहे हैं। इस बारे में भारत और ब्रिटेन में बहुत बड़ा फर्क है। ब्रिटिश कैग को ये दोनों ही अधिकार प्राप्त हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो कार्यपालिका यानी सरकार कैग की अनुमति के बिना राज-कोष से पैसा नहीं निकाल सकती है।
भारत में कैग को यह अधिकार नहीं है। इस कारण कैग खुद कोई निर्णय नहीं कर सकता है और राज-कोष को हुए नुकसान की भरपाई संबंधित अधिकारी से करने, उस पर कार्रवाई करने के कदम नहीं उठाए जा सकते हैं। 1971 के कैग कानून के अनुसार, कैग द्वारा मांगी गई जानकारी विभागीय अधिकारियों को देना बंधनकारक है। इसके साथ ही पूछे गए सवालों के जवाब देना भी बंधनकारक है। संबंधित अधिकारी द्वारा इसमें लापरवाही बरते जाने पर उसके बाबत अपनी लेखा रिपोर्ट में उल्लेख करने के सिवाय कोई विकल्प कैग के पास रहता नहीं है।
भारत एक प्रगतिशील देश है। अर्थव्यवस्था में जरा सा भी बदलाव हलचल मचाने के लिए पर्याप्त है। ऐसी स्थिति में जब कैग ने अपनी रिपोर्ट में लगभग 3 लाख करोड़ की हानि दर्शाई है तो वह बात उस बहस का मुद्दा नहीं है, जिस पर विपक्षी दलों ने केंद्र को निशाने पर रखा। कैग की रिपोर्ट से साफ जाहिर हो रहा है कि यदि हम उचित तरीके से यदि कोल ब्लॉक की नीलामी के जरिए आवंटन करते तो हमें 1.86 लाख करोड़ का फायदा हो सकता था। यह राशि सरकारी खजाने में जमा होती तो देश तरक्की के रास्ते में एक कदम और बढ़ा सकता था। यदि भारत में भी ब्रिटेन की भांति कैग को यह अधिकार होता कि सरकार किसी भी आर्थिक मसले पर उसका निर्णय मानती तो शायद कोल ब्लॉक घोटाला जैसी कोई घटना नहीं होती। कोल ब्लॉक आवंटन में उचित प्रक्रिया न अपनाने की गलती को स्वीकारने की बजाए कैग पर अपनी सीमा से बाहर जाकर उसके काम को अतिक्रमण जताना स्वाभाविक रूप से अमान्य है।
सरकार ने भी अपनी गलती स्वीकारने की जगह पुराने नियमों का हवाला दिया, साथ ही उसने उस प्रक्रिया को बिलकुल सही ठहराने की कोशिश की जिसकी वजह से देश को कोल ब्लॉक से फायदा होना था वह नहीं हो सका। इस कोल ब्लॉक आवंटन में हुए कथित घोटाले का एक और बुरा असर सामने आया और वह था संसद का लगातार 13 दिनों तक ठप रहना। यह 13 दिन देश के लिए अहम थे जब कई विधेयक संसद में पेश होने की बाट जोह रहे थे। संसद का यह मानसून सत्र एक रिकॉर्ड कायम कर गया सबसे कम काम करने का। हम अपने उन नीति नियंताओं से अब क्या उम्मीद कर सकते थे जिन्हें चुनकर हमनें संसद तक पहुंचाया जिसमें से एक दल ने कोल घोटाले के जरिए परोक्ष रूप से देश का नुकसान किया तो दूसरे ने संसद का काम ठप कर अपरोक्ष रूप से देश को हानि पहुंचाई।
संविधान संशोधन समिति ने सिफारिश की है कि कैग को चुनाव आयोग की ही तरह बहुसदस्यीय आडिट आयोग का दर्जा दिया जाए, उसके सदस्यों को संवैधानिक दर्जा दिया जाए और कार्यकाल अभी जैसा ही रखा जाए। यह भी सिफारिश की गई है कि कैग को सरकार की प्रशासनिक कार्य पद्धति का हिस्सा बनाया जाए और उसे संसदीय समर्थन भी दिया जाए। इसके साथ ही हमारे यहां कैग की रिपोर्ट का बाह्य परीक्षण करने की व्यवस्था नहीं है, जबकि ब्रिटेन में वह है। इसके पीछे मकसद यह कि दूसरों के कार्यो पर ऊंगली उठाने वाली संस्था खुद भी व्यावसायिक और दोषरहित होना चाहिए। ऑडिट में कैग द्वारा अपनाई गई प्रणाली पर शिकायत उचित भी हो सकती है।
आखिर, कैग एक अर्थशास्त्री के नजरिए से तो सब देखते नहीं हैं। हकीकत में, तो कैग को आर्थिक कुशलता की दृष्टि से समृद्ध बनाने का वक्त आ गया है। उसे नियंत्रक की जिम्मेदारी भी सौंपी जाना चाहिए। संसद को भी उत्तरदायी बनाया जाना चाहिए। सरकार और शासन-व्यवस्था पर से लोगों का जो विश्वास उठते जा रहा है, उसके चलते कैग का असली चेहरा जनता के सामने लाने के फेर में पड़ने के बजाय, अर्थात कैग के अधिकारी की मर्यादा, अधिकार स्पष्ट करने के बजाय या उस पर चाहे जो आरोप चस्पा करते बैठने के बजाय राज-कोष के खर्च का नियंत्रक यानी कंट्रोलर बनाए जाने का वक्त आ गया है।
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