धूप छांव
शिवाकाशी यानी पटाखों-आतिशबाजी की वह नगरी, जिसका जिक्र अमूमन हर दीपावली पर होता आया है, जब हम पटाखे खरीदते या फोड़ते हैं। इसके अलावा, शिवाकाशी का नाम तब सुर्खियों में होता है, जब वहां कोई अग्निकांड घटित होता है। पिछले हफ्ते मंगलवार को शिवाकाशी के मुधालीपेट्टी स्थित पटाखों के कारखानों हुए धमाकों के बाद लगी भीषण आग में 52 लोगों के प्राण-पखेरू उड़ गए, वहीं इतने ही जख्मी हो गए।
शिवाकाशी के ये कारखाने हमारी हंसी-खुशी और मौज-मस्ती से जुड़े हैं, क्योंकि वहां जो पटाखे बनाए जाते हैं, उन्हें हम दीपावली या खुशी के दूसरे मौके पर चलाते हैं। लिहाजा, प्रथमदृष्टया यह घटना सामान्य लगती है तो भी यह कहना गलत नहीं होगा कि हमारी हंसी-खुशी ने इन लोगों को मौत के मुंह में धकेल दिया। शिवाकाशी को आतिशबाजी उद्योग का ‘मिनी जापान’ भी कहा जाता है परंतु विकसित देशों की, शहरों के नामों की तुलना कर हम कितने ही ढोल पीटें, लेकिन वहां का उद्योग कल्चर यहां नहीं होता और उसकी केवल बातें ही होती है।
शिवाकाशी भी नाम का ही है। इस इलाके में पटाखों के करीब-करीब छह सौ कारखाने हैं, जिनमें हजारों श्रमिक काम करते हैं। यह एक कटु सत्य है कि इन कारखानों में सुरक्षा आदि के मामले में श्रमिक भगवान भरोसे ही होते हैं। कारखाना कानून वैध है या अवैध, अवैध है तो बंद हुआ कि नहीं, कारखाने में रासायनिक पदार्थो की मशीनरी या विशेष है या नहीं, श्रमिकों की सुरक्षा संबंधी पर्याप्त व्यवस्थाएं की गई हैं या नहीं, कारखानों का समय-समय पर निरीक्षण होता है या नहीं, आदि ऐसी महत्वपूर्ण बातें हैं, जिन्हें गंभीरता से लिया जाना चाहिए। इन तमाम बातों की ओर अनदेखी किए जाने का ही नतीजा है मुधालीपेट्टी की यह दुर्घटना, जहां 4 कारखानों में लगी भीषण आग में पांच श्रमिक मौत का शिकार हो गए।
इसके बाद भी प्रशासन इसे लेकर गंभीर नहीं दिखाई पड़ता। बताया गया कि मुधालीपेट्टी के इन कारखानों में रासायनिक पदार्थो का मिश्रण करने के दौरान घर्षण हुआ और फिर विस्फोट। धमाके का दृश्य भी रौंगटे खड़े करने वाला है। धमाके के बाद चिथड़े बने शरीर के टुकड़े सर्वत्र बिखरे हुए थे। इस धमाके की गूंज करीब दस किलोमीटर तक सुनाई दी थी। धमाके की सूचना मिलने के बाद अग्निशमन यानी फायर ब्रिगेड भी वहां नहीं पहुंच सकी थी। क्यों? क्योंकि वहां के रास्ते ठीक नहीं थे। वहां पहुंचने के बाद अगिA शामक दल को करीब-करीब दो घंटे तक हाथ पर हाथ रखकर खड़े रहना पड़ा, केवल इसलिए कि इस रासायनिक आग को रोकने के लिए जो सामग्री लगती है, वह उनके पास नहीं थी। अब दूसरी सुविधाओं या व्यवस्थाओं की बात करना भी बेमानी है।
रास्ते ठीक न होने से जख्मी लोगों को अस्पताल रवाना करने में भी दिक्कतें आईं। मुधालीपेट्टी की इस घटना से हमें साफ दिखाई पड़ता है कि हमारा ‘वर्क कल्चर’ किस दज्रे का है। जलते हुए कारखानों से श्रमिकों की‘बचाओ, बचाओ’ की पुकार सुनाई पड़ रही थीं, परंतु अगले धमाके की आशंका और वहां पसरे धुएं के आगे अग् िनशामक दल के जवान भी कुछ कर नहीं पा रहे थे। अपने मित्र, रिश्तेदार, परिचित आग में फंसे देखकर उन्हें बचाने गए कारखानों के दूसरे विभाग के श्रमिक भी मौत की बलि चढ़ गए।
अग्नितांडव ने उनकी ममता, प्रेम की भी बलि ले ली। इस अगिAकांड का पूरा वर्णन ही रौंगटे खड़े कर देने वाला है। अग्निकांड का शिकार हुए ओम शक्ति कारखाने का वर्क परमिट रद्द हो चुका था, फिर भी उस कारखाने में काम चालू था। वहां तीन सौ श्रमिक काम कर रहे थे। 48 कमरों में रासायनिक पदार्थ रखे गए थे। सरकारी स्तर की यह लापरवाही भी इस घटना के लिए जिम्मेदार है। शिवाकाशी, किसी न किसी कारण से चर्चा में रहता ही है। शिवाकाशी के कारखानों में छोटे-छोटे बच्चों यानी बाल-श्रमिकों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होता है, यह बात अब छुपी नहीं रह गई है। बाल श्रमिक झटपट और मन लगाकर काम करते हैं, जिससे उत्पादन बढ़ता है, कारखाने को भारी मुनाफा होता है और कारखाना मालिक की जेब और तिजोरी भरती है, परंतु जिस उम्र में हाथ में स्लेट-पेंसिल होना चाहिए, उस समय मजबूरी में ये नौनिहाल अपने पेट की खातिर दूसरों को खुशी देने पटाखों के निर्माण में जुट जाते हैं।
इन नौनिहालों के अभिभावक तंगहाल होते हैं, जिसका पूरा-पूरा फायदा इन कारखानों के मालिक उठाते हैं। यह शिवाकाशी की हकीकत है, जहां देश के कुल पटाखों में से 90 प्रतिशत पटाखे बनाए जाते हैं। ऐसे कारखानों के खिलाफ कार्रवाई भी होती है, लेकिन वह केवल दिखावे के लिए होती है। ऐसा नहीं है कि ओमशक्ति कारखाने के अगिAकांड में बाल श्रमिक मौत की बलि नहीं चढ़े होंगे, लेकिन सच सामने लाना जिस प्रकार कारखाना मालिक के लिए असुविधाजनक होता है, ठीक उतना ही सरकार के लिए भी।
इस कारण ऐसी घटना के सच कभी भी उजागर नहीं होते। शिवाकाशी के इस अग्निकांड को महज एक दुर्घटना मानना उचित नहीं होगा। इस घटना के लिए जिम्मेदार कारखाना मालिक ही नहीं, बल्कि वे अधिकारी भी हैं, जिनके होते हुए यह कारखाना गैर-कानूनी रूप से चल रहा था।
पिछले एक अरसे से हमारी उत्सवधर्मिता आश्चर्यजनक रूप से परवान चढ़ी है। पहले हम दीपावली पर ही पटाखे फोड़ते थे, आतिशबाजी करते थे, परंतु अब अनेक त्यौहारों या खुशी के मौकों पर भी पटाखों की गूंज सुनाई पड़ जाती है। शादी हो या बारात, कोई सा भी चुनाव हो, विजयी उम्मीदवार का जुलूस बिना पटाखे फोड़े निकलने का सवाल ही नहीं उठता। पटाखों के लिए दीपावली तक बाट नहीं जोहना पड़ती। फिलहाल गणोशोत्सव आने वाले हैं। गणपति बप्पा के आगमन के साथ ही विसजर्न में भी पटाखों की गूंज सुनाई पड़ेगी। वो इतने हजार, लाख के पटाखे फोड़ता है तो मैं उससे कम हूं क्या, मैं उससे ज्यादा के पटाखे फोडूंगा।
यह प्रवृत्ति बढ़ रही है। इस होड़ में अपने बच्चों को शामिल देख कई अभिभावकों के चेहरे गर्वित दिखते हैं। इस झूठी शान, दंभ की बलि चढ़ते हुए हम कहां जा रहे हैं, यह भूल जाते हैं। दीपावली के साथ ही अब हम नए साल के स्वागत में क्रिकेट मैचों में जीत पर भी पटाखे फोड़कर झूठी शान बघारने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। ठीक बारह बजे, घड़ी के कांटे मिलते ही पटाखों की जो आवाज गूंजती है, उससे जमीन तो जमीन आसमान भी थर्रा उठता है।
ऐसे वक्त लोगों की नींद, बीमार, छोटे बच्चों, बुजुर्गो को होने वाली परेशानी की ओर कोई ध्यान नहीं देता, आखिर खुशी का, आनंद का इजहार जो करना है। ध्वनि प्रदूषण रोकने की दृष्टि से बिना आवाज के पटाखे भी आने लगे हैं, लेकिन उनका इस्तेमाल कोई इसलिए नहीं करता, क्योंकि उनमें आवाज ही नहीं होती। इसके अलावा पटाखों में जले हुए रासायनिक पदार्थ भी स्वास्थ्य के लिए उतने ही घातक होते हैं। ऐसे पटाखों, आतिशबाजी पर शासन रोक लगाता है तो उससे हमें छूट मिलना चाहिए, आधी रात को भी हमारी मौज-मस्ती का इजहार पटाखे फोड़कर होना चाहिए, इसके लिए लोग मंत्रलयों, सरकारी दफ्तरों के दरवाजों पर भिड़ते दिखाई पड़ते हैं।
हमारे शासक भी मुट्ठी भर लोगों की खुशी के लिए अनुमति देने से गुरेज नहीं करते, जो अनेक लोगों के लिए सिरदर्द साबित होती है। बेशक, हमारा समाजमन उत्सवधर्मी हो गया है, आनंद को, खुशी को इजहार करने के तौर-तरीके भड़कीले और दिखाऊ हो गए हैं पर हमारे आनंद को दोगुना-चौगुना करते हुए हम कितने और लोगों की बलि लेंगे, इसका भी विचार करने की जरूरत आन पड़ी है।
पिछले साल इंदौर के समीप राऊ में ऐन दशहरे पर भी ऐसा ही अगिAकांड हुआ था, जिसमें आठ लोगों की जान चली गई थी। राऊ में पिछले एक-डेढ़ दशक से पटाखों का उत्पादन हों रहा था, जिससे राऊ शिवाकाशी के रूप में प्रसिद्ध भी हो रहा था। पिछले साल हुए भीषण अग्निकांड के बाद प्रशासन ने वहां के सभी लायसेंस निरस्त कर दिए, जिससे अब वहां पटाखे नहीं बनाए जाते हैं। राऊ के मामले में प्रशासन की तारीफ इसलिए की जाना चाहिए, क्योंकि प्रशासन ने तुरंत ठोस कदम उठाकर भावी दुर्घटनाओं पर नकेल कस दी है। सवाल उठता है कि आखिर, शिवाकाशी में ऐसी दुर्घटनाओं को रोकने के लिए माकूल कदम क्यों नहीं डठाए जा सकते?
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