गुरुवार, 6 सितंबर 2012

फेरी वालों को मिलेगी दिलासा

धूप-छांव
बह की चाय पीने के बाद दूधवाले की हाक के पश्चात कानों पर आवाज गूंजती है सब्जी वाले की। केवल भाजी वाला ही नहीं तो जो चाहिए वह छोटी से छोटी वस्तु अपने ठेले पर या कंधे पर रखकर अपने घर के ठीक सामने उपलब्ध करा देने वाले भाजीवाले से लेकर फेरी वालों ने आम लोगों के जीवन में महत्वपूर्ण स्थान बना लिया है।


कपड़े, फल, सब्जी, चप्पल-जूते से लेकर बच्चों के खिलौनों के साथ ही नित्यपयोगी वस्तुओं को उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी इन छोटे व्यवसायियों पर यानी फेरी वालों पर होती है। ग्रामीण भारत में भरने वाले साप्ताहिक हाट तो वहां की अर्थव्यवस्था का और देश की अर्थव्यवस्था का एक बड़ा घटक है। देश के तमाम बेरोजगार हाथों को रोजगार देने वाले इस व्यवसाय के रूप में इसे देखा जा सकता है। 

अल्प पूंजी निवेश, थोड़ी-सी सामग्री के आधार पर शुरू किया जा सकने वाला यह व्यवसाय और जरूरत की पूर्ति, कमाई का साधन जुटा देने से देश के असंख्य गरीब इस धंधे या व्यवसाय से जुड़े हैं। आज की स्थिति में देश में फेरी वालों की संख्या 5 करोड़ से ऊपर है। इनमें तीन से पांच लाख फेरी वाले मुंबई में हैं। इनमें महिलाओं की संख्या भी अधिक है। अकेले मुंबई की ही बात करें, तो इस महानगर के फेरीवालों में 17 प्रतिशत महिलाएं हैं। पटना में यह संख्या 21 फीसदी है, तो बंगलुरू में 44 प्रतिशत है। फेरीवाले या फुटकर विक्रेताओं में महिलाओं की सर्वाधिक संख्या मेघालय में है। वहां 70 प्रतिशत महिलाएं इस व्यवसाय से ही जीवनयापन करती हैं।

दुनियाभर के सभी देशों में ऐसे घुमंतू विक्रेताओं की और फुटपाथ पर धंधा करने वालों की एक बड़ी तादाद है। यही नहीं, कई शहरों में तो एक विशिष्ट प्रकार की पहचान पा चुकी है। भारत में भी रास्तों के इर्द-गिर्द फुटपाथ पर बैठकर, खड़े रहकर गाड़ियों में सामान रखकर बेचने वाले दिखाई पड़ते हैं। इस कारण कई बार यातायात में भी परेशानी आती है। उन्हें अनाधिकृत माना जाता है और उनके खिलाफ अतिक्रमण की कार्रवाई भी की जाती है। मात्र इस अनौपचारिक व्यवस्था के कारण करोड़ों भारतीय स्वावलंबी बन गए हैं, यह भी एक सच है। 

इन फेरीवालों में निरक्षरता का प्रमाण भी अधिक है। अल्प शिक्षित और पैसों की जोड़तोड़ समझने वाले ऐसा व्यवसाय करते दिखते हैं। फेरी वालों में निरक्षरता की बात करें, तो बिहार का उल्लेख खासतौर पर करना पड़ेगा। वहां के कुल चिल्लर विक्रेताओं में 52 प्रतिशत विक्रेताओं के निरक्षर होने की बात कही जाती है। फिलहाल पिछले कुछ वर्षो में शहरों की ओर आने वालों की संख्या बढ़ी है। स्वाभाविक तौरपर फेरीवालों और घुमंतू विक्रेताओं की संख्या भी बढ़ी है। इस कारण उनके ठीक से नियोजन का और संगठित होने के अभाव के कारण उन्हें अनेक संकटों का सामना करना पड़ता है। इसके लिए शहर विकास प्राधिकरण जैसी संस्थाएं जिम्मेदार हैं। ऐसा नहीं है कि हमारे देश में सभी विक्रेता घूम-फिरकर ही व्यवसाय करते हैं। उसी प्रकार, घूम-फिरकर अलग-अलग सामग्री बेचने वालों के अलग-अलग समूह हैं।

आम तौर पर सब्जी-भाजी, चादर-बेडशीट्स, कपड़े, खिलौने वैसे ही इलेक्टॉनिक्स व दैनिक उपयोग की वस्तुएं बेचने वाले साल भर दिखाई पड़ते हैं। कुछ फेरी वाले मौसम के हिसाब से होते हैं। तीज-त्यौहार या ऋतुमान के हिसाब से उनका व्यवसाय होता है। शहरों में अनेक विक्रेता खास जगहों पर व्यवसाय करते हैं। इनमें खाद्य पदार्थो का समावेश भी अधिक होता है। ये खाद्य पदार्थ इतने स्वादिष्ट होते हैं कि ये बाद में उस शहर की पहचान बन जाते हैं। 

मुंबई के वड़ापाव, पकोड़े या इंदौर के पोहे, कचोरी वाले या बंगलुरू, चेन्नई जैसे शहरों में इडली, डोसा या दिल्ली-पंजाब में छोले-भटूरे वाले या कोलकाता में रसगुल्ले बेचने वाले फेरीवालों ने तो उस शहर की संस्कृति में अपना विशिष्ट स्थान बना लिया है, परंतु यातायात समस्या, अतिक्रमण आदि के बहाने इन फेरीवालों को लूटने, विस्थापित करने की कोशिशें लगातार होती रहती हैं। इसी प्रकार उस इलाके के दादा-बदमाश भी वसूली करने में जुट जाते हैं।  ऐसी कार्रवाइयों के कारण अनेक फेरीवालों का जीवन ध्वस्त हो जाता है, जिससे वे रास्ते पर आ जाते हैं। कार्रवाई करने की धमकी देकर पुलिस, नगर निगम के कर्मचारी आदि ऊपरी कमाई कर अपनी जेब भरते हैं।

कभी जगह जगह अतिक्रमण की कार्रवाई कर इन फेरीवालों को उनके स्थानों से विस्थापित कर दिया जाता है। फेरीवालों पर होने वाली इन कार्रवाइयों और अन्याय के कारण कई फेरीवाले तो विलुप्त की कगार पर हैं, तो कई फेरीवालों ने अपना व्यवसाय ही बदल लिया। ऐसा नहीं है कि फेरीवालों का केवल शासन, पुलिस, गुंडे ही शोषण करते हैं, बल्कि स्पर्धा की इस दौड़ में अक्सर हर फेरीवाले का बड़ा फेरी वाला शोषण करता है और बड़े फेरीवाले का उससे बड़ा फेरीवाला। मुङो याद है कि फेरीवालों में पहले एक फेरी वाला आता था, जो बायोस्कोप दिखाता था। 

फिल्मी तारिकाओं के चित्र और उन पर उसका गाना, बाद में उसने ग्रामोफोन भी लगा दिया था। कई मौसमी फेरीवाले जो गर्मियों में आइस्क्रीम स्कैंडी बेचने आते थे, अब उनकी संख्या भी लगातार घट रही है। इनके पतन का मुख्य कारण आजकल लोगों के बदलती सोच है आजकल लोग फेरी वाले की 5 या 10 रुपए की आइसक्रीम खाने से अच्छा टॉप एंड टाउन में महंगी आइस्क्रीम खाने में ज्यादा दिलचस्पी दिखाते हैं। इसी तरह बंदर, रीछ और मदारी के खेल दिखाने वाले फेरी लगाने वाले पता नहीं कहां चले गए। शायद वे भी इस सभी की मार के कारण काल के गाल में समा गए।

फेरीवालों का यह शोषण रोकने के उद्देश्य से केंद्र सरकार ने एक विधेयक हाल में पारित किया है। इस विधेयक के अनुसार देश का कोई सा भी 18 साल से ऊपर का व्यक्ति संबंधित शहर की स्थानीय निकाय संस्था की फेरी वाला मंजूरी समिति में आवेदन कर आवश्यक शुल्क भरकर फेरीवाला की अधिकृत अनुमति का लायसेंस ले सकता है। पंजीयन के बाद उसे पहचान-पत्र दिया जाएगा। इसके आधार पर वह नियोजित सीमा में अपनी सामग्री बेच सकेगा। इस नई व्यवस्था के बाद फिलहाल प्रचलित और देश भर में फेरीवालों के शोषण की, ठगने की लायसेंस प्रणाली खत्म जैसी हो जाएगी। नए विधेयक में पुलिस के हस्तक्षेप पर नियंत्रण का प्रावधान भी किया गया है। समूचे फेरीवालों के लिए यह एक बड़ी दिलासा साबित होने वाली है, इसमें कोई शंका नहीं। 

यह विधेयक मंजूर हो जाने से समाज के एक बड़े वर्ग को आत्म-सम्मान से जीने का अधिकार और पहचान मिलने वाली है। ऐसा हुआ तो भी विधेयक के कानून बनने के बाद नगर पालिका, पुलिस आदि की तरफ से फेरीवालों पर होने वाली ज्यादती, भ्रष्टाचार, पूरी तरह रूक जाएगा, ऐसी आशा करना बेकार है। हां, उसमें कमी जरूर आ जाएगी। कानून का संरक्षण मिलने से फेरीवालों को संगठित होकर अपने ऊपर होने वाले अन्याय के विरोध में दाद मांगने में सुविधा हो जाएगी। उनकी यह आवाज कानून के संरक्षण की वजह से दबाई नहीं जा सकेगी, जो फिलहाल कभी डंडे और कभी विस्थापन के डर से दबा दी जाती है।

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