
सन् 2014 के लोकसभा चुनाव में कोई तीसरी शक्ति सत्ता में आएगी और उसे कांग्रेस या भाजपा के समर्थन की दरकार होगी, ऐसी भविष्यवाणी आडवाणीजी ने की है. आडवाणी के इस उवाच से भाजपा में प्रधानमंत्री पद के लिए टकटकी लगाए नेताओं के चेहरे मुरझा गए हैं. इस उवाच में आडवाणी ने कांग्रेस को भी सत्ता से बाहर रखते हुए ऊंट की तिरछी चाल चली है. आडवाणी की यह पुरानी आदत है. सन् 2004 के लोकसभा चुनाव में भी आडवाणी ने कांग्रेस को 100 से ज्यादा सीटें नहीं मिलने का दावा किया था. तब जनता जनार्दन ने ही कांग्रेस गठबंधन को बहुमत देकर आडवाणी और उनकी पार्टी को सत्ता से खेत रखा था.
आडवाणी के इस ब्लाग के पहले उधर बिहार के मुख्यमंत्री नीतिशकुमार ने मैदान सम्हाल लिया और यह कह दिया कि भाजपा गठबंधन सत्ता में आता है तो नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री नहीं बनाया जाए और भाजपा को चुनाव के पहले ही प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करना चाहिए. यह भाजपा के उन कर्णधारों के लिए करारा झटका है, जिन्होंने नरेंद्र मोदी को भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत कर उनका कद अकारण और असमय ही बढ़ा दिया है. वैसे देखें तो आडवाणीजी का यह ब्लॉग, 2014 के लोकसभा चुनाव के पूर्व ही पार्टी के पराभव की सीधे-सीधे कबूली है.
उम्र के 27 वें साल में आडवाणीजी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सचिव बन गए थे, अर्थात उन्होंने सामाजिक कार्यो का बीड़ा उठाने का प्रण कर लिया था, तब आज जो भाजपा नेता प्रधानमंत्री पद का ख्वाब देख रहे हैं, उनका शायद जन्म भी नहीं हुआ होगा. बहरहाल, आडवाणीजी के कांग्रेस संबंधी बयान को बाजू रख दें तो उन्होंने जो बोला है, गलत नहीं बोला. भाजपा की आज जो स्थिति है, उसे आडवाणीजी से बेहतर कौन जानता-समझता है. उन्हें पता है, पार्टी की आमजनता से टूट चुकी कड़ी का, उन्हें पता है पार्टी नेताओं के बीच बढ़ती अंतर्कलह और गलाकाट महत्वाकांक्षा का, उन्हें पता है भाजपा शासित राज्यों में फैले भ्रष्टाचार का.
शायद इन्हीं वजहों को ध्यान में रखते हुए उन्होंने बेबाकी और साफगोई से ये बाते ब्लाग में स्वीकार की हैं. भाजपा कभी भी आम जनता यानी पंडित दीनदयाल उपाध्याय के अंतिम पंक्ति के अंतिम व्यक्ति की पार्टी नहीं बन पाई. राम मंदिर के नाम पर धार्मिक उन्माद पैदा कर, भावनाओं को भड़काकर भाजपा केंद्र में सत्तारूढ़ होने में कामयाब हुई थी. अनेक राज्यों में भी उसकी सरकारें बनी थीं और आज भी आधा दर्जन से अधिक राज्यों में भाजपा का राज है. उत्तरप्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों की जनता भाजपा को नकार चुकी है.
राजग यानी एनडीए में शामिल अनेक सहयोगी दलों ने भाजपा से नाता तोड़ लिया. उड़ीसा के बीजू जनता दल ने भी गठबंधन को राम-राम कह दिया. यही नहीं, शिवसेना ने भाजपा समर्थित राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार को ही नकार दिया. जनसंघ का अवतार भारतीय जनता पार्टी को सही मायनों में जनता की पार्टी बनाने के बजाय उसे दूर रखने का काम किया अटलबिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी ने. हां, भाजपा की इस सफलता में बाबरी मस्जिद मामले में मर्यादा पुरुष प्रभु श्रीरामचंद्र का भी योगदान था.
अटलजी प्रधानमंत्री थे और लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री बनना था परंतु कांग्रेस के कथित भ्रष्टाचार पर तोप दागने वाले भाजपा नेता सत्ता में आने के बाद भ्रष्टाचार की गंगा में इतना नहाए कि 2004 में जनता ने उन्हें घर भेज दिया और प्रधानमंत्री बनने का आडवाणीजी का स्वपA भी खंड-खंड हो गया. इसके बाद तो प्रधानमंत्री बनने का सपना देखने वालों की एक लंबी सूची ही बन गई है-सुषमा स्वराज, नरेंद्र मोदी, अरूण जेटली, मुरली मनोहर जोशी, नितीन गडकरी आदि आदि. वाजपेयी और आडवाणी के अलावा भाजपा में राष्ट्रीय स्तर का कोई ऐसा नेता नहीं है जो अटक से कटक और कश्मीर से कन्याकुमारी तक जनता में अपनी पैठ रखता हो.
इस परिप्रेक्ष्य में आडवाणी के ब्लॉग उवाच से जख्म पर नमक ही छिड़का गया है. इससे भाजपा की स्थिति और दयनीय हो गई है. फिलहाल, प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी का नाम सबसे आगे है, लेकिन उन्हें पीछे धकेलने या बाजू करने वाले भी कम नहीं है. 2002 में गुजरात में हुए सांप्रदायिक दंगों के बाद से मोदी सुर्खियों में ही नहीं, विवादित भी रहे हैं. कतिपय लोगों का आरोप है कि मोदी के हाथ रक्तरंजित हैं. पूरे देश में उनकी निंदा-आलोचना हुई और दुनिया में भी उनके नाम की गूंज हुई. शायद उनकी हाय ही थी कि बिहार विधानसभा के पिछले चुनाव में प्रचार में आने से नीतिशकुमार ने उन्हें रोक दिया था और आज भी उन्हें भाजपा से इस बात की ग्यारंटी चाहिए कि भाजपा सत्ता में आने पर मोदी को प्रधानमंत्री नहीं बनाएगी.
भाजपाशासित जो छह राज्य हैं उनमें गुजरात और मध्यप्रदेश ही महत्वपूर्ण और निर्णायक हैं. आंध्रप्रदेश में चंद्राबाबू नायडू जैसा सहयोगी पहले से ही चित्त है तो तमिलनाडु में जयललिता सत्ता में है तो भी कब करवट बदल लेंगी, इसका कोई भरोसा नहीं. उनके समर्थन वापस ले लेने के कारण ही भाजपा को केंद्र में सत्ता से हाथ धोना पड़ा था. ममता बनर्जी कांग्रेसनीत यूपीए के साथ होने से उनकी भाजपा के साथ आने की कोई संभावना नहीं है. देश के सबसे बड़े सूबे उत्तरप्रदेश में यादवों का राज है. यादवों के बाद वहां मायावती की बसपा की स्थिति मजबूत है.
कर्नाटक में भाजपा सत्तासीन जरूर है पर वहां येदियुरप्पा सरीखे प्रभावशाली नेता भ्रष्टाचार के आरोप में मुख्यमंत्री पद गंवाना पड़ा है. यही नहीं, वहां सत्ता का यादवी संघर्ष कब क्या गुल खिलाएगा, कुछ कहा नहीं जा सकता. राजस्थान में सत्ता में नहीं होते हुए भी भाजपा में महारानी और प्रजा के बीच संघर्ष की स्थिति है. यह सब देखने के बाद भाजपा कैसे आशावान हो सकती है. उस पर आडवाणी उवाच ने तो भाजपा की बोलती ही बंद कर दी. भाजपा को सत्ता में लाने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश् व हिंदू परिषद, बजरंग दल जैसे संगठन जुटे हुए हैं.
आरएसएस या भाजपा लाख इनकार करे, भाजपा पर आरएसएस का नियंत्रण है. भाजपा का अध्यक्ष कौन हो, यह फरमान आरएसएस के सुप्रीमो ही देते हैं. उस पर तुक्का यह है कि भाजपा नेता जनता में अपनी पैठ बनाने के बजाय मीडिया को ज्यादा समय देते हैं. पार्टी की मौजूदा स्थिति को आडवाणी ने स्वीकार कर भाजपा की मुश्किलें और बढ़ा दी हैं. सच कहा जाए तो उन्होंने भाजपा को आईना दिखा दिया है.
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