हरियाणा के गुड़गांव से 16 किमी दूर स्थित औद्योगिक क्षेत्र में पिछले दिनों हुए श्रमिकों के हिंसक आंदोलन की आग अभी बुझी नहीं है। इस औद्योगिक क्षेत्र में गत 18 जुलाई को दिन ढले मारुति सुजुकी कंपनी के श्रमिकों ने हिंसक रूप इख्तियार कर कंपनी के करीब 90 अधिकारियों-कर्मचारियों के साथ मारपीट की। इन हिसंक श्रमिकों के निशाने पर था अधिकारी वर्ग।
तमाम अधिकरियों पर जैसे उन्होंने हल्ला ही बोल दिया और न जाने कब की पीड़ा उस वक्त निकल पड़ी। इसमें कंपनी के एचआर डिपार्टमेंट के जनरल मैनेजर अविनाश कुमार की दुखद मृत्यु हो गई। श्रमिकों ने उनके कक्ष को आग के हवाले कर दिया और वे वहां से भाग न पाएं, इसलिए उनके हाथ-पांव बांध दिए। श्रमिकों की कार्रवाई समर्थन करने योग्य नहीं है, लेकिन इस घटना ने बहुराष्ट्रीय संस्कृति और श्रमिकों के संबंधों पर तमाम सवाल खड़े कर दिए हैं।
श्रमिकों की हिंसक कार्रवाई के बाद पुलिस ने सैकड़ों श्रमिकों को हिरासत में ले लिया है। सरकार ने वहां बड़ी संख्या में पुलिस बल भी तैनात कर दिया है। इसके अलावा इस मुकदमे को चलाने के लिए एक विशेष वकील की नियुक्ति भी कर दी है। हरियाणा के उद्योग मंत्री, सीनियर पुलिस अधिकारियों, उद्योग एवं श्रम विभाग के अधिकारियों ने मारुति सुजुकी के भारत के प्रबंध संचालक शिन्झो नकानीषी से भेंटकर उन्हें आश्वस्त किया है कि कारखाने के संचालन में किसी प्रकार का व्यवधान नहीं आने दिया जाएगा। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि सरकार को मिलने वाले राजस्व में उनका बड़ा योगदान है। इसकी एक और वजह है। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी उन दिनों जापान के दौर पर थे और उन्होंने सुजुकी के जापान स्थित वरिष्ठ अधिकारियों से भेंटकर गुजरात में कंपनी शुरू करने की मांग की।
हरियाणा से भी अधिक सुविधाएं गुजरात में मुहैया कराने का आश्वासन भी मोदी ने दिया है। श्रमिकों के आक्रोश के बाद तीसरे दिन ही, यानी 21 जुलाई को कंपनी ने तालाबंदी कर दी। इसके दो दिन बाद मानेसर-गुड़गांव परिसर के 200 गांवों के सरपंचों ने एक महापंचायत बुलाई। इस महापंचायत में कहा गया कि सभी गांवों की एक समिति गठित कर उसके द्वारा कंपनी की सुरक्षा किए जाने का आश्वासन भी दिया गया। इस इलाके में मारुति सुजुकी और उसकी सहयोगी इकाइयों में हजारों लोगों को रोजगार मिला है, इनमें अधिकांश लोग स्थानीय होने से पिछले दशक भर में इन गांवों का कायापलट हो गया है। इस कारण तालाबंदी होने से इन ग्रामीणों में भय पैदा हो गया।
तभी मारुति के भारत के चेयरमैन आरसी भार्गव ने कह दिया कि अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं की जाएगी, जोड़-तोड़ नहीं की जाएगी और जरूरत पड़ने पर कारखाने के सभी श्रमिकों को निकाल बाहर किया जाएगा। भार्गव ने यह भी कहा कि श्रमिकों ने बड़े स्तर पर तोड़फोड़ की है। अनेक विभाग जलाकर राख कर दिए हैं। पुलिस जांच और शांति स्थापित होने के बाद कारखाना चालू करने का कहा तो भी करीब एक महीना लग जाएगा। भार्गव को श्रमिकों के आंदोलन में वाम समर्थित माओवादियों का हाथ भी दिखाई दिया।
हरियाणा पुलिस ने जांच कार्य तेजी से शुरू कर दिया है, पर माओवादियों का हाथ होने के आरोप के बाद यह केवल औद्योगिक समस्या नहीं, बल्कि राजनीति षड्यंत्र भी हो सकता है, इसकी तहकीकात जरूरी हो गई है। श्रमिकों का एक आरोप यह भी है कि प्रबंधन के प्रतिनिधि ने जातिसूचक गालियां दीं। एक चर्चा यह भी है कि इस हिंसक आंदोलन से डरक मारूति सुजुकी कंपनी भारत छोड़कर चली जाएगी। इस बात में कितना दम है, यह भी देखना होगा। जापान की सुजुकी कंपनी की भारत में ‘मारुति सुजुकी इंडिया’ यह उप कंपनी है तो भी सुजुकी के पूरी दुनिया के कुल मुनाफे में उसका योगदान 30 फीसदी है। जापानी कंपनी जापान में हर साल 10 लाख 20 हजार गाड़ियां बनाती है, तो भारत में उससे भी ज्यादा 11 लाख 30 हजार वाहनों का उत्पादन किया जाता है।
मानेसर स्थित कारखाने से हर रोज करीब 1900 कारें तैयार होकर बाहर निकलती हैं, तो गुड़गांव के कारखाने से रोजाना 3800। यानी भारत के इन दोनों कारखानों में ही रोजाना साढ़े 5 हजार कारों का उत्पादन होता है। अब इस पूरे मामले को समेटा नहीं जा सकता, पर इस औद्योगिक अशांति के बीज इन दोनों कारखानों में 2005 में ही पड़ गए थे। मार्च 2012 को समाप्त हुए वित्तीय वर्ष में मानेसर कारखाने में हड़ताल के कारण 18 दिनों तक कामकाज प्रभावित हुआ। कंपनी का दावा है कि इस कारण वाहनों की बिक्री में 11 प्रतिशत कमी आई और शुद्ध मुनाफे में 29 प्रतिशत नुकसान उठाना पड़ा।
तलाबंदी के कारण हर रोज 10 लाख डॉलर का नुकसान होने की बात भी कंपनी कहती है। इस कारण ‘मारुति सुजुकी इंडिया’ के शेयर भी लुढ़कने लगे थे, किंतु कंपनी को सही में चिंता है, तो इस बात की कि कहीं डीजल गाड़ियों के भारतीय मार्केट में उसे स्पर्धी कंपनियां खदेड़ न दें! मानेसर के कारखाने में कुल 1214 कर्मचारी काम करते हैं, इनमें से 380 सुपरवाइजर श्रेणी के हैं, तो 204 स्थायी श्रमिक हैं। इसके अलावा 630 श्रमिक ठेका पद्धति पर काम करते हैं। ठेके पर काम करने वाले श्रमिकों को 5 से 7 हजार रुपए प्रतिमाह वेतन मिलता है, वहीं काम करने वाले स्थायी श्रमिकों को 17 से 20 हजार वेतन मिलता है। इस कंपनी में श्रमिकों की ट्रेड यूनियन है।
अनेक राजनीतिक दलों के केंद्रीय श्रमिक संगठनों ने अपनी-अपनी यूनियनें कंपनी में स्थापित करने की कोशिश की, पर कंपनी ने उनकी कोशिशें नाकाम कर दीं। उनके बजाय कंपनी ने अपने अंतर्गत संगठन को मान्यता दी पर 2011 की हड़ताल के बाद कंपनी प्रबंधन का रवैया श्रमिकों के प्रति कठोर हो गया। इस हड़ताल को कराने में जिनकी अग्रणी भूमिका रही, उन्हें नौकरी से निकालने की शर्त पर ही यह हड़ताल खत्म हुई। इसके अलावा कंपनी ने सभी श्रमिकों से अच्छे बर्ताव की गारंटी भी ली। इसमें कुछ शर्ते बड़ी अटपटी हैं। उदाहरणार्थ, कंपनी के अनुशासन के नियमानुसार, टॉयलेट जाकर आने का टाइम सात मिनट है। इससे अधिक समय लगा तो वह गंभीर अपराध माना जाएगा और उसके लिए कर्मचारी को बर्खास्त भी किया जा सकता है।
राजनीतिक प्रचार भी गंभीर अपराध की श्रेणी में आता है। कार्यस्थल पर पान-तंबाकू-गुटखा खाना भी गुनाह है, पर उतना सख्त नहीं। मानेसर के हिंसक श्रमिक आंदोलन के बाद श्रम कानूनों में सुधार करने की मांग ने जोर पकड़ा है। ऐसा नहीं होने पर न केवल विदेशी निवेश पर बल्कि भारत की अर्थव्यवस्था पर भी विपरीत असर होगा। मानेसर के बहाने सारे उद्योगपति अपनी बरसों पुरानी मांगों को आगे बढ़ाने में जुट गए हैं। मानेसर उनके लिए सही मौका साबित हुआ है। उधर महापंचायत के सरपंच का कहना है कि कारखानों में सारी नौकरियां स्थानीय भूमिपुत्रों को दो, फिर देखो कैसे शांति रहती है।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों में उनकी कार्य-संस्कृति और भारतीय श्रमिक तथा ठेका श्रमिकों का बढ़ता शोषण और उससे उत्पन्न हो रही आर्थिक विषमता मानेसर की घटना के पीछे के मुख्य कारण हैं। आज औद्योगिक क्षेत्र में श्रमिक संगठनों, उनकी भूमिका, उनके अधिकारों के प्रति सतत उपेक्षा भाव बरता जा रहा है। उनकी उपेक्षा समाज के लिए आत्मघाती साबित हो सकती है और यही मानेसर में घटित हुआ है। कंपनियों को अपने उत्पादन, मुनाफे, शेयर की कीमत और रोजगार के अलावा श्रमिक हित के बारे में भी सोचना होगा, तभी मानेसर जैसी घटना को रोका जा सकेगा।
sabak lene ka samay yahi hai.....
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