पत्रकार अपनी डय़ूटी यानि फर्ज अदा करते हैं, तब राजनेता उन्हें अपने स्वार्थ के लिए बदनाम करते हैं. किसी बात का ठीकरा फोड़ना हो तो पत्रकार सबसे कमजोर कड़ी होता है. पहले शान के साथ बोलना और बवाल मचने पर हाथ ऊंचे कर देना, या यह कह देना कि मैंने तो ऐसा कहा ही नहीं था. मेरे बयान या साक्षात्कार को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया है. आजकल यह मर्ज बहुत बढ़ गया है.
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वराज चव्हाण ने अब जाकर यह अपेक्षा की है कि पत्रकारों को सरकार का साथ देना चाहिए तो सवाल उठता है कि सरकार ऐसी कौन-सी पारदर्शिता के साथ काम कर रही है. खुद की और पार्टी की सुविधानुसार अपनी बात मीडिया के सामने बखान कर अपनी पीठ थपथपाने वालों की महाराष्ट्र सरकार क्या किसी भी सरकार में कमी नहीं है. केंद्रीय कृषिमंत्री शरद पवार ने पिछले दिनों केंद्र में कांग्रेस के खिलाफ बगावत का तय कर लिया था पर हवा का रूख भांपकर उन्हें दो कदम पीछे हटना पड़ा था.
सोनिया गांधी ने उनके दबाव के आगे झुकने से साफ इनकार दिया था, इसलिए ही मराठा क्षत्रप को पीछे हटना पड़ा था पर समन्वय समिति केवल बोलने की है. इसके पहले भी समन्वय समिति थी. उसका क्या हुआ? तीन साल तक बैठक ही नहीं हुई. गठबंधन सरकार चलाना है तो समन्वय जरूरी होता है, परंतु अपनी पार्टी की योजनाएं शुरु हुई कि स्वार्थी नेताओं का काम खत्म. पवार साहब ने मुंबई में पत्रकारों पर ठीकरा फोड़ा कि मीडिया दोनों कांग्रेस के बीच झगड़े लगा रही है. यह बात उन्होंने एक इंटरव्यू में कही. शरद पवार, संकट काल और विवादों में भी स्थितप्रज्ञ रहने वाले व्यक्ति हैं परंतु पिछले कुछ सालों से उनके अंदाज गड़बड़ा रहे हैं और सपने फलीभूत नहीं हो रहे हैं. जब सपने पूरे नहीं हो पा रहे हैं तो उन्हें सत्ता से दूर रहना चाहिए.
लेकिन सत्ता में नहीं रहे तो उनके पीछे चार लोग भी नहीं रहेंगे, इसलिए सत्ता में बने रहना उनकी मजबूरी भी है. पवार ने ऐसे वक्त ‘पावर पॉलीटिक्स’ का गेम खेला, जब देश अल्पवर्षा के कारण अकाल की ओर बढ़ रहा था. पूरे दो दिन तक सरकार के साथ असहयोग कर उन्होंने कांग्रेस पर जो दव्बाव बनाया, वह आम नागरिक को रास नहीं आया.
शरद पवार के भतीजे और महाराष्ट्र के उप मुख्यमंत्री अजित पवार ने कुछ माह पहले ही पत्रकारों पर कटाक्षपूर्ण हल्ला बोला था. मीडिया ने तब पवार घराने को टारगेट बनाकर मोर्चा खोल दिया था, तब कहीं शरद पवार को मध्यस्थता करना पड़ी थी और अजित पवार को पीछे हटना पड़ा था. जब उन्हें यह एहसास हो गया कि पत्रकारों के रोष के कारण पार्टी और सरकार का कामकाज ठीक से नहीं हो पा रहा है तो उन्होंने मीडिया से दिलजमाई कर ली थी. अब वही शरद पवार मीडिया पर दोष मढ़ रहे हैं और उसे कटघरे में खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं. ये मीडिया को रास नहीं आया. पत्रकार या मीडिया समाज के प्रति अपना फर्ज अदा करते हैं और उन्हें उनकी नजर में जो सही दिखता है, वे दिखाते और लिखते हैं किंतु पत्रकार जब संकट में आते हैं तब यही सरकार और सत्ताधारी उसमें खोट ढूंढते हैं.
शरद पवार के भतीजे और महाराष्ट्र के उप मुख्यमंत्री अजित पवार ने कुछ माह पहले ही पत्रकारों पर कटाक्षपूर्ण हल्ला बोला था. मीडिया ने तब पवार घराने को टारगेट बनाकर मोर्चा खोल दिया था, तब कहीं शरद पवार को मध्यस्थता करना पड़ी थी और अजित पवार को पीछे हटना पड़ा था. जब उन्हें यह एहसास हो गया कि पत्रकारों के रोष के कारण पार्टी और सरकार का कामकाज ठीक से नहीं हो पा रहा है तो उन्होंने मीडिया से दिलजमाई कर ली थी. अब वही शरद पवार मीडिया पर दोष मढ़ रहे हैं और उसे कटघरे में खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं. ये मीडिया को रास नहीं आया. पत्रकार या मीडिया समाज के प्रति अपना फर्ज अदा करते हैं और उन्हें उनकी नजर में जो सही दिखता है, वे दिखाते और लिखते हैं किंतु पत्रकार जब संकट में आते हैं तब यही सरकार और सत्ताधारी उसमें खोट ढूंढते हैं.
अब यह आए दिन होता है. परंतु पिछले पचास सालों से राजनीति में सक्रिय पवार भी पत्रकारों को दोषी ठहराएं, यह थोड़ा अजीब लगता है, खटकता भी है. मीडिया आज बहुत ही सक्रिय और सजग है. जरा-सी हरकत हुई कि वे धड़ाधड़ शुरू हो जाते हैं. इस कारण आम आदमी के मानस पटल पर कोई छोटी-सी भी घटना लंबे समय तक रहती है. पत्रकारों के खिलाफ तुच्छ भाषा, उन पर हमले कोई नई बात नहीं है.
पत्रकारों पर हमले रोकने के लिए कानून बनाए जाने की मांग पिछ ले कई सालों से हो रही है, लेकिन सभी दलों के नेताओं ने उसे पीठ दिखा दी है. वरिष्ठ पत्रकारों और संपादकों ने इस मांग के समर्थन में आंदोलन भी किए, आवाज भी उठाई, मगर उसका कुछ नहीं हुआ. अब शरद पवार जैसे वरिष्ठ नेता भी पत्रकारों और मीडिया के लिए ऐसी सोच रखेंगे तो पत्रकारों को क्या करनाचाहिए. मीडिया की भूमिका सही थी या गलत? यह आने वाला कल बताएगा, परंतु मेरे खयाल से हमारी भूमिका कतई गलत नहीं थी.
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