रविवार, 29 जुलाई 2012

खेल को खेल ही रहने दो..

ओलंपिक, यानी खेलों के ‘महाकुंभ’ का आगाज हो चुका है।  ओलंपिक, अब दूसरे खेलों की तरह खेल कम रह गया है और उनमें व्यावसायिकता हावी हो गई है। नतीजा यह हुआ है कि ओलंपिक स्पर्धाओं को अब समारोह-जलसे और जश्न का स्वरूप मिलने लगा है। कभी खेत-खलिहान में शुरू हुए प्राचीन ओलंपिक और आधुनिक ओलंपिक में यही सबसे बड़ा फर्क दिखाई पड़ता है। यह फर्क आने के दो प्रमुख कारण हैं।


पहला खेल के क्षेत्र में तकनीक का इस्तेमाल और दूसरा वैश्वीकरण की बयार के साथ इस क्षेत्र का हो रहा व्यावसायीकरण। इस कारण मैदान पर ही नहीं, मैदान के बाहर भी लालसा की होड़ चरम पर दिखाई पड़ती है। उत्तेजक दवाओं का इस्तेमाल और भ्रष्टाचार ओलंपिक का एक हिस्सा बनकर रह गए हैं। ओलंपिक के जनक बेरन दि कुबर्टिन ने यह कभी कल्पना भी नहीं की होगी। गति यानी रफ्तार और परिवर्तन ने दुनिया को बड़ी तेजी से बदल दिया है। इस कारण ओलंपिक के स्वरूप में आगे व कितने क्रांतिकारी परिवर्तन होंगे, कहा नहीं जा सकता। अब इस विश्व खेल समारोह को ‘ओलंपिक स्पर्धा’ नहीं ‘ओलंपिक महाकुंभ’ कहा जाने लगा है।

पिछले कुछ सालों की स्पर्धा देखें तो ओलंपिक में अब पदकों के बजाय रिकॉर्ड को अधिक महत्व दिया जाने लगा है। उदाहरण स्वरूप एथलेटिक्स को ही लें, एथलेटिक्स को ओलंपिक की आत्मा माना जाता है। उसमें भी 100 मीटर की स्पर्धा पर तो पूरी दुनिया की नजरें टिकी होती है। सौ मीटर की दौड़ कौन जीतेगा, इसके बजाय इस स्पर्धा में विश्व रिकॉर्ड बनेगा क्या, इस बात की सर्वत्र चर्चा है। बढ़ती अत्याधुनिक तकनीक पर निर्भर धावक फिलहाल दौड़ रहे हैं। 

इस कारण 10.7, 10.6 सेकंड का समय सहज ही कोई भी धावक निकाल सकता है, इसीलिए ओलंपिक में इस स्पर्धा में स्वर्णपदक कौन जीतेगा, इसके बजाय उसेन बोल्ट 9.0 सेकंड का समय निकाल पाएगा या नहीं, इसकी चर्चा जोरों पर है। ‘पोल व्हॉल्ट’ का समावेश ओलंपिक में होने से पहले सर्जी बुब्का और अब येलेना इसिनाबायेवा के स्वर्ण पदक जीतने की अपेक्षा उनके खुद के विश्व रिकॉर्ड तोड़ेंगे क्या, इस बात  की चर्चा अधिक होती है। तैराकी में मायकल फेल्प्स ने बीजिंग ओलंपिक में 8 स्वर्ण पदक जीतने का कीर्तिमान बनाया था। 

विश्व रिकॉर्ड बनाने के साथ ही उसने यह सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया था, पर अब फेल्प्स के इस प्रदर्शन के बजाय अत्याधुनिक तकनीक का इस्तेमाल कर वह पानी में गिरते वक्त कितनी रफ्तार से  गिरता है, पानी में हाथ मारते उसकी गति कितनी होती है, वह कितना पानी पीछे छोड़ता है, इन बातों पर नजर रखी जाती है। यह सब अकल्पनीय है। खेलों को खेल की नजर से ही देखे जाने की जरूरत है। रजत पदक और कांस्य पदक का कोई महत्व ही नहीं रह गया है। गोल्ड मेडल ही सब कुछ हो गया है। भविष्य में गोल्ड मेडल से भी महत्वपूर्ण कोई पदक या उपाधि आ जाए, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। ओलंपिक खेल अब करीब-करीब सभी देशों को रास आने लगे हैं। 

हर ओलंपिक में शामिल होने वाले देशों की संख्या बढ़ रही है। इस कारण नए-नए देश ओलंपिक में शिरकत कर रहे हैं। दूसरे विश्व युद्ध के बाद ओलंपिक में शामिल होने वाले देशों की संख्या बढ़ने लगी है। इसकी मुख्य वजह विश्व युद्ध के बाद अनेक आबादियों का रुपांतर स्वतंत्र देश के रूप में होना है। प्रथम ओलंपिक में मात्र 13 देशों ने भाग लिया था। बाद में हर ओलंपिक स्पर्धा में यह आंकड़ा बढ़ता ही गया। लंदन में शुरू हुए इस ओलंपिक में 204 देश शिरकत कर रहे हैं।  दुनिया में स्वायत्त देशों की संख्या बढ़ रही है। पहले 75 देश स्वायत्त थे तो अब 200 से ज्यादा स्वायत्त, यानी स्वतंत्र हैं। ओलंपिक संगठन से संबद्ध देशों की संख्या भी करीब-करीब इतनी ही है। देशों की संख्या बढ़ने से खिलाड़ियों की संख्या बढ़ना स्वाभाविक ही है।

क्या ओलंपिक का आयोजन और क्या उसका समारोह, एक बार जब ओलंपिक का आयोजन करने का तय कर लिया, तो फिर उस पर होने वाले खर्च के बारे में कुछ भी नहीं सोचा जाता। ओलंपिक का आयोजन हर एक देश के लिए प्रतिष्ठा और गौरव की बात होती है। इसलिए दिनों-दिन यह खर्च बढ़ता ही जा रहा है और दिनों-दिन बढ़ना ही है, लेकिन अब उसे ‘प्रायोजक’ यानी ‘स्पांसर्स’ मिलना शुरू हो गए हैं। अनेक देशों की सार्वजनिक क्षेत्र की बड़ी-बड़ी नामचीन कंपनियां ओलंपिक की प्रायोजक बनने के लिए भाग-दौड़ करती हैं। 

ओलंपिक स्पर्धा के जरिए मिलने वाली लोकप्रियता व्यापक होने से इन कंपनियों में प्रायोजक बनने के लिए गलाकाट प्रतिस्पर्धा होने लगी है। वैश्वीकरण की बयार में फंसे ओलंपिक को इस घेरे से बाहर निकालना नामुमकिन और जटिल हो गया है। आर्थिक मंदी का रोना कितना भी रोया जाए, तो भी प्रायोजक और खर्च इनका समीकरण कभी बिगड़ने वाला नहीं है। लिहाजा इस खेल महाकुंभ पर भ्रष्टाचार के काले धब्बे भी लग जाते हैं।

भ्रष्टाचार का अजगर जब हर एक देश, हर एक सिस्टम को निगलने पर आमादा है, तब ओलंपिक खेल इससे अछूते कैसे रह सकते हैं। लिहाजा ओलंपिक की मेजबानी हथियाने के लिए पूरा खर्च उठाने का लालच देने से लेकर ऊंची, महंगी, मूल्यवान वस्तुएं सौगात में देने तक की प्रवृत्ति लगातार बढ़ती जा रही है और इसे ‘शिष्टाचार’ का नाम दिया जाता है, लेकिन होता तो वह भ्रष्टाचार ही है ना! हम जानते हैं कि बड़े-बड़े भ्रष्टाचार की शुरुआत आखिर इस प्रकार की भेंट-सौगातों के लेने-देन से ही होती है। 

ओलंपिक संगठन में भी इस प्रकार के भ्रष्टाचार के मामले उजागर होने से यह आशंका बलवती होने लगी है कि कहीं इस विश्व खेल स्पर्धा को भ्रष्टाचार का अजगर निगलने की कोशिश न करे। हालांकि ऐसे मामलों में ओलंपिक पदाधिकारियों ने मामले की जांच कर दोषी लोगों पर कार्रवाई करने का साहस दिखाया है। ओलंपिक खेलों का बढ़ता प्रसार, प्रायोजकों का बढ़ता महत्व, विदेशी मुद्रा के तले होने वाले खुले व्यवहार, खास लोगों की ओलंपिक संगठन में तानाशाही, इन सब बातों के कारण ओलंपिक में भ्रष्टाचार के अंकुर फूटने लगे हैं। 

दूसरी महत्व की बात यह है कि इस खेल-स्पर्धा को ‘जश्न’ यानी समारोह में तब्दील कर कतिपय राजनेताओं ने इस संगठन को अपने कब्जे में ले लिया है। इन लोगों का खेलों से कोई लेना-देना नहीं होता है। उन्हें चाहिए होती है केवल पब्लिसिटी। उसके लिए ही वे ऐसी स्पर्धाओं का इस्तेमाल कर लेते हैं। प्रायोजक और व्यक्तिगत पुरस्कारों का पर्व शुरू होने के पहले ही यह स्पर्धा किसी के भी गले में डाल दी जाती है। यानी पहले जैसी स्थिति अब रह नहीं गई है।

पूरा परिदृश्य बदल गया है। गरम तवे पर रोटी सेंकने की प्रवृत्ति बढ़ गई है। ओलंपिक की मेजबानी हथियाने के लिए चाहे जो कीमत लगाने को अनेक देश तैयार रहते हैं। उसके लिए पर्दे के पीछे अनेक व्यवहार और काम होते हैं। दुनिया जैसे-जैसे और करीब आएगी या वैश्वीकरण का आहार बनेगी, वैसे-वैसे ये ‘अदृश्य’ काम बढें़गे, इसमें रत्ती भर भी शंका नहीं हैं। ओलंपिक स्पर्धा की मेजबानी मिलते ही सबसे पहली बात होती है, स्पर्धा में शुमार खेलों के मुताबिक स्टेडियम के निर्माण की। 

ओलंपिक स्पर्धा के लिए आज तक निर्मित मुख्य स्टेडियम उनके विशिष्ट निर्माण कार्य के कारण बेमिसाल साबित हुए हैं। इनमें हम म्युनिख, मांट्रियल, सिडनी और बीजिंग के स्टेडियमों का जिक्र कर सकते हैं। प्रथम दृष्टया ही नजरों को लुभा लें, ये स्टेडियम ऐसे थे, मगर आगे क्या हुआ? हर एक स्टेडियम सफेद हाथी साबित हुए। भारी-भरकम धन खर्च कर तैयार किए गए स्टेडियमों की देखभाल का खर्च भी भारी-भरकम ही होता है। 

बाद में ये सरकार का सिरदर्द बन जाते हैं। लंदन में ओलंपिक स्पर्धा शुरू होने के पहले से ही आयोजन समिति स्टेडियमों के भविष्य को लेकर विचार कर रही है। ओलंपिक केवल खेल-स्पर्धा ही नहीं बल्कि परंपरानुसार चल रही एक गतिविधि भी है, एक तत्वज्ञान भी है। आज यह खेल स्पर्धा कब और कैसे ‘इवेंट’ बन गई, यह पता ही नहीं चला। अभी भी वक्त है, जब हम ओलंपिक खेल स्पर्धा के व्यवसायीकरण व भ्रष्टाचार को रोकने की कोशिश कर सकते हैं।

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