शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

रोटी जरूरी है या मोबाईल?

देवी अहिल्या की नगरी इंदौर के राजबाड़ा स्थित एक चाय की टपरी पर बरसों पहले एक उम्दा शेर अंकित था। शेर था-‘जिस बात की बात नहीं होती, उस बात की बात होती है। उस बात की बात नहीं होती, जिस बात की बात होती है।’मुङो लगता है कि हमारी सरकारें और राजनीतिक दल भी अक्सर उन मुद्दों, समस्याओं पर बात नहीं करते, जिन मुद्दों या समस्याओं पर उन्हें न केवल गंभीरता से सोच-विचार, मंथन कर ठोस कदम उठाना चाहिए।


हाल-फिलहाल, हैरान करने वाली जो बात है, वह यह है कि सरकार गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन कर रहे 60 लाख परिवारों में हरेक को 200 रुपए के फ्री टॉक टाईम के साथ मुफ्त में हेंडसेट देने की योजना पर विचार कर रही है। तमाम किंतु-परंतुओं के बावजूद इस बात की प्रबल संभावना है कि प्रधानमंत्री स्वतंत्रता दिवस पर इस योजना की घोषणा कर दें।

7 हजार करोड़ रुपए खर्चकर सरकार ‘हर हाथ में मोबाइल’ देने की बात कर रही है। यह एक अजीबोगरीब योजना है। गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बस कर रहे इन परिवारों को मुफ्त में मोबाईल देकर सरकार क्या जताना चाहती है? इन परिवारों में से कई भूखे पेट सोने को मजबूर हैं तब उनकी भूख मिटाने या उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य की बात नहीं कर मोबाईल थमाने की मंशा के पीछे आखिर क्या निहितार्थ हैं? गरीबी रेखा के नीचे जीवन जी रहे (बीपीएल) परिवारों  में मानसिक रोगों और डायबिटीस के रोगियों का सरकार ने सामान्य और सुपर स्पेशलिटी हास्पिटल में निशुल्क इलाज कराने का निर्णय लिया है. 

गरीबों को केसर जैसी गंभीर बीमारियों के उपचार के लिए आर्थिक सहायता देने संबंधी राष्ट्रीय स्वास्थ्य निधि योजना के अंतर्गत मानसिक बीमारियों और डायबिटीस  को भी शामिल कर लिया गया है। डिप्रेशन, बेचैनी जैसी बीमारियों के तमाम बीपीएल रोगियों के उपचार के लिए एक लाख रुपए की ग्रांट एक बार प्रदान की जाएगी. जिस केस में एक लाख रुपए से अधिक खर्च होने की संभावना है, उस केस को स्वास्थ्य सेवा के महानिदेशक की अगुवाई में गठित विशेषज्ञ समिति को सौंपा जाएगा। इस योजना की घोषणा के वक्त सरकार ने कहा था कि देश की 7 प्रतिशत आबादी मानसिक रोगों से ग्रस्त है।

संख्या की दृष्टि से देखें तो यह आंकड़ा 13 करोड़ के इर्द-गिर्द होगा. इनमें से 90 प्रतिशत मरीज अपना इलाज नहीं करवा सकते, क्योंकि देश में प्रति 4 लाख की आबादी पर केवल एक मनोचिकित्सक है। जरूरतमंद मरीजों की मदद के लिए एम्स, सफदरजंग हास्पिटल जैसे बड़े अस्पतालों के अधीक्षकों के पास 10 लाख रुपए से लेकर 40 लाख रुपए तक की राशि रखी जाएगी। 

इस बारे में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद का कहना है कि प्राथमिक स्वास्थ सेवा के डॉक्टर्स जिन रोगियों का इलाज करते हैं उनमें से लगभग 20 प्रतिशत मरीज एक या अधिक मानसिक बीमारी से पीड़ित होते हैं। हर चार में से एक परिवार में कम से कम एक व्यक्ति को मानसिक उपचार की जरूरत होती है। ऐसी स्थिति में, आज भी लगभग 8 हजार मनोचिकित्सकों, 17 हजार क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट, 23 हजार सायकियाट्रिक सोशल वर्कर और 9 हजार सायकियाट्रिक नर्सेस की कमी है, तब इन गोर-गरीबों का उपचार कैसे होगा? समझ से परे है।


सरकारें जब भी किसी योजना की घोषणा करती है तो उसके समग्र पहलुओं पर सोच-विचार नहीं करती। उसके पीछे अपने ज्ञान-गणित होते हैं। आम जनता उसका विरोध करने या यह कहने की स्थिति में नहीं होती कि इस योजना की उसे  जरूरत नहीं। यदि कोई विरोध करता भी है तो उसे देशद्रोही करार देने से सरकार बाज नहीं आती। विपक्षी दल अपने राजनीतिक स्वार्थ की खातिर ऐसी योजनाओं, घोषणाओं का विरोध भले ही न करे पर आम जनता को देखते हुए तमाम बुद्धिजीवियों, समझदार लोगों को ऐसी योजनाओं का विरोध करना ही चाहिए। 

जब मनोचिकित्सक ही नहीं होंगे तो इलाज कैसे संभव होगा? जाहिर-सी बात है कि ऐसे तमाम जरूरत मरीजों को आर्थिक सहायता उपलब्ध करा देने से ही उपचार नहीं होगा। सरकार एक या दो लाख के बजाय पांच-दस लाख रुपए देगी तो भी कोई मनोचिकित्सक बड़े शहर की अपनी प्रेक्टिस छोड़कर छोटे शहर में नहीं जाएगा। सरकार खुद जब मानती है कि देश में मनोचिकित्सकों की कमी है, उनसे जुड़े दीगर कर्मचारियों का भी अभाव है, तब करोड़ों मानसिक रोगियों का इलाज कुछ हजार डाक्टर्स कैसे कर पाएंगे। सरकार को मरीजों की आर्थिक मदद करने के साथ-साथ चिकित्सक उपलब्ध कराना भी जरूरी है। सरकारी नियमों और मेडिकल कौंसिल ऑफ इंडिया की त्रुटिपूर्ण नीति के कारण हरेक मेडिकल ब्रांच में पोस्ट ग्रेजुएट अध्ययन के लिए प्राध्यापकों की कमी है और छात्रों को उनकी इच्छा के मुताबिक पढ़ाई करने का अवसर तक नहीं मिल पाता।

इन दोनों प्रकार की बीमारी बढ़ने की वजह हमारे मौजूदा काल की पेचीदा स्थिति है। अधिकांश लोगों को दो जून का भोजन करना मुश्किल होता जा रहा है। महंगाई बेलगाम हो गई है और उस पर नियंत्रण के सारे उपाय निष्फल साबित हो रहे हैं। शुद्ध सात्विक भोजन या पौष्टिक पदार्थो से पेट भरना दिनों-दिन मुश्किल होता जा रहा है, तब इलाज की बात बाद की है। ऐसी स्थिति में , सरकार को ऐसा कुछ करना चाहिए जिससे लोगों के कष्ट कम हों, वे राहत महसूस कर सकें, उन्हें तमाम योजनाओं का लाभ मिल सके, विकास का लाभ उठा सकें, ऐसे कदम उठाने की सरकार को जरूरत है। बीपीएल कार्डधारी परिवारों के हाथ में मोबाईल थमा देने या मुफ्त इलाज की सिंगतिपूर्ण योजनाओं की कतई जरूरत नहीं। 

गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करने वाले परिवारों के लिए यदि वाकई सरकार कुछ करना चाहती है तो उन्हें अच्छी खुराक, अच्छी शिक्षा और जरूरत पड़ने पर अच्छे इलाज की व्यवस्था की जाना चाहिए। यही नहीं, इन तमाम विभागों में एक ऐसा सरकारी तंत्र देने की भी जरूरत है जो इन गरीब परिवारों को बिना किसी भ्रष्टाचार, बिना किसी लेतलाली के अपनी सेवा दे सके। ये तमाम काम मौजूदा योजनाओं से भी हो सकते हैं पर होते नहीं हैं। बीपीएल कार्डधारकों को मुफ्त इलाज की सुविधा है ना! रोजाना कितने गरीब अस्पतालों से बिना इलाज कराए, अपमानित होकर, धक्के खाकर लौटते हैं।

वैसे तो सरकार ने टी.बी. के मुफ्त इलाज की घोषणा की है। यदि क्षय रोगी अस्पताल आने में असमर्थ है तो उसके घर जाकर इलाज करने, दवा उपलब्ध कराने की व्यवस्था है। इसके बावजूद क्षय रोग कम नहीं होता, क्यों? क्षय रोगी को दवा के बाद दूध देना भी जरूरी होता है। वह कौन देगा? सीधी-सी बात है, जब पेट में चूहे ओलंपिक खेलते हैं तो दिमाग भी ठिकाने नहीं रहता और चूहों के ऐसे ओलंपिक के लिए कोई और नहीं, हमारे भ्रष्ट नेता, हमारी सरकार जिम्मेदार हैं। पेट के साथ-साथ गरीब का कलेजा भी जलता है तो हरेक प्रकार की बीमारी गले लगने का जोखिम बढ़ जाता है। अभी तो हमारे देश की सबसे बड़ी बीमारी भ्रष्टाचार है। हरेक आम से लेकर खास तक भ्रष्टाचार से पीड़ित है। अण्णा हजारे से बाबा रामदेव तक इस भ्रष्टाचार के खिलाफ सड़क पर हैं और आंदोलन कर रहे हैं, लेकिन सरकार है कि कुछ सुनने, समझने को ही तैयार नहीं है।

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