एक बार अकबर ने बीरबल से पूछा, एक शब्द में बताइए -‘घोड़ा अड़ा क्यों? पान सड़ा क्यों? रोटी जली क्यों, बीरबल का जवाब था ‘फेरा न था।’ आज 21वीं सदी में यदि आप पूछें कि ‘सरकारी गेंहू सड़ा क्यों’ तो जवाब आज भी वही मिलेगा ‘फेरा न था’ अर्थात कन्ट्रोल नहीं था। वो सुरक्षा सिस्टम ही नहीं था जो गेहूं को सड़ने से बचा पाता। अब सवाल यह है कि फेरा न था या फेरा बनाया ही न था। जी हां, मैं उस गेहूं की बात कर रहा हूं जो हर साल भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में या खुले में रखे होने के कारण सड़ जाता है। ताजा खबर के मुताबिक एक लाख टन गेहूं बर्बाद हो गया है। ऐसा कतई नहीं है कि गेहूं पहली बार सड़ा है, पहले भी सड़ता रहा है और भविष्य में भी सड़ता रहेगा, इसमें कोई शंका नहीं।
1947 में, जब हम आजाद हुए थे, तब देश विभिन्न हिस्सों में बंटा हुआ था, खाद्यान्न के भंडारण के लिए पर्याप्त गोदाम नहीं थे। नतीजा यह हुआ कि 1 करोड़ 70 लाख टन गेहूं खुले में रखना पड़ा था और वह पहली ही बारिश में पानी में मिल गया था। उस वक्त भी इस बात को लेकर बहुत हंगामा मचा था और आज भी मचता है, लेकिन हम अनाज के सड़ने, खराब होने की खबरें पढ़ते रहते हैं और पढ़ते रहेंगे।
जिस देश में रोजाना 23 करोड़ लोग भूखे पेट सोते हों, उस देश में खाद्यान्न का एक दाना भी बेकार जाना गुनाह है, ऐसा सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में कहा है परंतु ‘अन्नपूर्णा’ को आराध्य मानने वाले हमारे देश में सालों-साल से अनाज की बर्बादी शुरू है।
पिछले महीने राज्यसभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में केंद्रीय खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति मंत्री केवी थॉमस ने हिला देने वाली जानकारी दी। उन्होंने बताया कि सन् 2011-12 के वित्तीय वर्ष में पंजाब में 66 हजार 306 टन और हरियाणा में 10 हजार 456 टन खाद्यान्न नष्ट हो गया, सड़ गया। भंडारण की उचित व्यवस्था नहीं होने के कारण राज्य सरकारों के कब्जे का यह गेहूं अब खाने योग्य नहीं रह गया है, यह भी जानकारी सदन को दी। मंत्रीजी ने यह हजारों टन खाद्यान्न खाने योग्य क्यों नहीं है, इसकी वजह बताते हुए कहा कि पानी भीग जाने के कारण उसमें कीड़े लग गए हैं, उस खाद्यान्न की वाजिब चिंता नहीं की गई, आदि कारणों का पाठ पढ़ा। एक ओर हमारे प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह, पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी के महत्वाकांक्षी ‘अन्न सुरक्षा विधेयक’ के क्रियान्वयन को लेकर गंभीर हैं तो दूसरी ओर खाद्यमंत्री द्वारा दी गई जानकारी विराधियों के हाथ लग गई और भूखे लोगों को अन्न देने के मुद्दे पर भी राजनीतिक रोटियां सेंकी गई।
हकीकत में देखें तो भारत के पास खाद्यान्न का पर्याप्त भंडार हैं। संकट काल में भी हमारे ‘बफर स्टॉक’ में पर्याप्त खाद्यान्न रहे, इस बात का खयाल रखा जाता है। भारत के पास फिलहाल, जरूरत का ढाई गुणा अर्थात 80 करोड़ टन गेहूं चावल है।भूखे-कंगाल लोगों की बात की जाए तो हम दुनिया में नंबर 1 की पायदान पर हैं। भारत में हर रोज 23 करोड़ लोग भूखे रहते हैं। हर मिनट में 5 लोग भूख से दम तोड़ते हैं। हर साल करीब 25 लाख भूख से मर जाते हैं तो दूसरी तरफ लाखों टन खाद्यान्न खुले में, भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में सड़ जाता है। इसे क्या माना जाए? पिछले सीजन तक देश में 61 करोड़ टन गेहूं और चावल का उत्पादन हुआ था। प्रकृति ने साथ दिया और खाद्यान्न का उत्पादन अच्छा हुआ तो भी उसके भंडारण की व्यवस्था का क्या? यह सवाल हर साल मुंहबाए खड़ा होता है। बीच में इस मांग ने जोर पकड़ा था कि जिस खाद्यान्न के भंडारण की उचित व्यवस्था नहीं है, वह खाद्यान्न गरीबी रेखा के नीचे जीने वालों को मुफ्त में दे दिया जाए। इस मांग को कतिपय वरिष्ठ मंत्रियों ने सिरे से खारिज कर दिया था। ‘गरीब लोगों को मुफ्त में अनाज देने की आदत मत डालो’ यह कहकर मंत्रियों ने गरीबों और भूखे लोगों पर जैसे व्यंग्यपूर्वक तमाचा ही जड़ा था।
गेहूं खरीदी से लेकर गेहूं सड़ जाने के इस पुराण की गहराई में जाएं तो एक से बढ़कर एक और रोचक कहानियां सामने आती हैं। खाद्य निगम के गोदामों में होने वाले घपलों-घोटालों और राशन की दुकान तक आते-आते और आने के बाद किस प्रकार खाद्यान्न गायब होकर बाजार में पहुंच जाता है, यह हम सभी अच्छी तरह जानते हैं। गरीब लोगों के मुंह से निवाला छिनने वाले दिनों-दिन मोटे होते जाते हैं। खाद्य निगम यानी एफसीआई के उच्च पदस्थ अधिकारियों से प्रगाढ़ संबंध रखने वाले व्यापारियों का एक ‘रैकेट’ है। इस सिंडीकेट के व्यक्ति को ही निगम खाद्यान्न के परिवहन का ठेका मिलता है और उनमें से ही कुछ लोग सड़े हुए खाद्यान्न की खरीदी करते हैं और मालामाल होते हैं। इस गोरख-धंधे में लगे एक व्यक्ति से जब पूछा गया कि ‘तुम सड़े हुए, खराब अनाज की ही खरीदी क्यों करते हो?’ तो जवाब में पता चला कि हर साल बारिश में अनाज की बोरियां फट जाने के कारण या कीड़े लग जाने के कारण भारी मात्र में गेहूं-चावल सड़ जाता है। ऐसे सड़े या खराब हुए अनाज को ठिकाने लगाने का खर्च सरकार के बस की बात नहीं। उसे केवल पशु आहार बनाने वाली कंपनियां ही खरीद सकती हैं।
ठेकेदार खाद्य निगम से वह सड़ा-गला अनाज कम कीमत में खरीदता है और उसे पशु आहार बनाने वाली कंपनियों को अधिक भाव में बेच देता है। इस सौदे में उसे ज्यादा फायदा होता है। कैसे? एक उदाहरण से समझते हैं। खाद्य निगम ने यदि 3 हजार टन खराब अनाज का टेंडर निकाला, तो उस गोदाम के लोगों सांठगांठ कर उस 3 हजार टन खराब अनाज में 1 हजार टन अच्छा अनाज बाहर निकाल दिया जाता है। इसके अलावा जिसे खराब माना जाता है उस अनाज का 30-40 प्रतिशत अनाज अच्छा होता है। अर्थात, 3 हजार टन खराब अनाज मिट्टी के भाव लेने वाले व्यापारी को 1 हजार टन यदि अच्छा माल मिल जाता है तो उसकी चांदी हो जाती है। दिल्ली में ऐसे शातिर और चालाक व्यापारियों की बड़ी-बड़ी ऑटा मिलें हैं। उस ब्रांडेड आटे के आकर्षक लुभावने बेगों के पीछे छुपी यह स्याह कहानी है।
खाद्य निगम और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अनाज की आपूर्ति करने और पहुंचाने वाले ठेकेदार की कहानियां तो आंखें खोल देने वाली है। दो महीने पहले सीबीआई ने उत्तरप्रदेश के दलजीतसिंह और उसके दो साथियों को गिरफ्तार किया। अरबों रुपए के अनाज घोटाले का वह सूत्रधार है। शासकीय गोदामों का अनाज कालाबाजार में ले जाकर बेचने के इस गोरख-धंधे में वह एक साल में ही करोड़ों रुपए कमाता था। दलजीत के पास अनाज के परिवहन का ठेका था। इस कारण हर दिन कितना खाद्यान्न कहां और किस वाहन से भिजवाया, इसके बिल पेश कर वह पैसे लेता था। हैरान करने वाली बात है कि सीबीआई को जो कागजात मिले, वे सब फर्जी निकले, परिवहन में उल्लेखित ट्रकों के नंबर जांच में लूना और ऑटो रिक्शा के नंबर निकले।
इस पूरे खेल में अंदाजन 2 हजार लोगों के लिप्त होने की आशंका है पर सीबीआई अभी दलजीतसिंह सहित 3 लोगों को अपनी गिरफ्त में ले सकी है। संक्षेप में कहें तो एक तरफ करोड़ों लोग भूखे सोने को मजबूर हैं और दूसरी तरफ हजारों-लाखों टन गेहूं-चावल हर साल सड़ जाता है और उसे गरीबों को देने के बजाय उससे कमाई की जाती है। सड़ रहे अनाज की खबरें हर साल आती है पर हमारे कर्णधारों की न तो नींद खुलती है और न ही वे कोई ठोस कदम उठाते हैं। यह वाकई दुर्भाग्य की बात है, जिस देश में अन्न को देव माना जाता है, जिस देश में मां अन्नपूर्णा को पूजा जाता है, जहां हरेक व्यक्ति भोजन ग्रहण करने के पहले भोजन को नमन करते हैं, जिस अन्न को हमारे किसान भाई अथक मेहनत कर, पसीना बहाकर उगाते हैं उस अन्न का ये अंजाम..क्यों? आखिर क्यों?
पिछले साठ सालों में कई सरकारें आई और गईं, किसी ने भी इस दिशा में कभी सोचा नहीं पर एक बात दीवार लिखी इबारत की माफिक साफ है कि अनाज का सड़ना कई लोगों के लिए भ्रष्टाचार की गंगा में नहाने उतना ही फायदेमंद है। यदि गरीबों को रियायती मूल्य या मुफ्त में गेहूं उपलब्ध करा दिया जाएगा तो इनके पेट कैसे भरेंगे? गेहूं का सीजन आने पर जब किसान अपना अनाज बेचने की कवायद करता होगा, तब कतिपय सफेदपोश निश्चित ही गेहूं सड़ने की दुआ करते होंगे, क्योंकि जितना सड़ेगा, ये लोग उतनी चांदी काटेंगे।
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