प्रशांतकुमार यानी अन्नू (परिवार और इष्ट मित्रों के बीच वह इसी नाम से मशहूर था।) का अचानक हमारे बीच से यूं चले जाना इसलिए खलता है, क्योंकि ईश्वर ने उसे बहुत कम जिंदगी दी..लेकिन उसने अपनी छोटी-सी जिंदगी में मप्र की राजधानी भोपाल सहित पूरे प्रदेश और पत्रकारिता जो मुकाम बनाया था, वह बेमिसाल है..प्रशांत सही मायनों में अजातशत्रु था, वह जिस किसी से भी एक बार मिल लेता था, उसके दिल में अपनी जगह मुकर्रर कर लेता था..इत्तेफाकन, अन्नू से मेरा परिचय उसी दिन हुआ था..जिस दिन मैं भोपाल पहली बार आया था..उस दिन वह मुङो ब्रजभाई (ब्रजमोहन श्रीवास्तव) के शिवाजीनगर स्थित घर मिला था..
ब्रजभाई ने मेरा परिचय प्रशांत से कराया था. उसके थोड़े दिनों बाद जब प्रशांत ने ‘दैनिक भास्कर’ ज्वाइन किया, तब विधानसभा की रिपोर्टिग के दौरान वह मेरे और नजदीक आ गया था..वह दौर ही जुदा था.. आज के भोपाल से बिल्कुल जुदा.
उन दिनों (1989-91) के दौरान विधानसभा में प्रलय श्रीवास्तव पीआरओ हुआ करते थे और तमाम युवा पत्रकार पुरानी विधानसभा में प्रलय के कक्ष में इकट्टा हुआ करते थे. उनमें प्रशांत भी एक था. प्रशांत में एक नहीं तमाम खूबियां थीं. जो उसके व्यक्तित्व में चार चांद लगातीं थीं. वो नाहक नहीं बोलता था, लेकिन जब बोलता था तो उसका अर्थ निकालना हर किसी के बस की बात नहीं होती थी. उसकी मुस्कराहट में भी रहस्य होता था. इस विशाल राजधानी की नब्ज पर उसकी खासी पकड़ थी. फिर भले ही राजनीति हो क्राइम, बरकतुल्ला यूनिवर्सिटी, सभी पर उसकी पकड़ थी. यह उसके तगड़े नेटवर्क का ही नतीजा था कि उसे राजधानी का हर वो बड़ा-छोटा घटनाक्रम, उसके पास होता था. इन्हीं खूबियों की बदौलत प्रशांत ने राजधानी की पत्रकारिता में अपना एक मुकाम बना लिया था.
उन दिनों (1989-91) के दौरान विधानसभा में प्रलय श्रीवास्तव पीआरओ हुआ करते थे और तमाम युवा पत्रकार पुरानी विधानसभा में प्रलय के कक्ष में इकट्टा हुआ करते थे. उनमें प्रशांत भी एक था. प्रशांत में एक नहीं तमाम खूबियां थीं. जो उसके व्यक्तित्व में चार चांद लगातीं थीं. वो नाहक नहीं बोलता था, लेकिन जब बोलता था तो उसका अर्थ निकालना हर किसी के बस की बात नहीं होती थी. उसकी मुस्कराहट में भी रहस्य होता था. इस विशाल राजधानी की नब्ज पर उसकी खासी पकड़ थी. फिर भले ही राजनीति हो क्राइम, बरकतुल्ला यूनिवर्सिटी, सभी पर उसकी पकड़ थी. यह उसके तगड़े नेटवर्क का ही नतीजा था कि उसे राजधानी का हर वो बड़ा-छोटा घटनाक्रम, उसके पास होता था. इन्हीं खूबियों की बदौलत प्रशांत ने राजधानी की पत्रकारिता में अपना एक मुकाम बना लिया था.
एक युवा पत्रकार के लिए इससे बड़ी पूंजी और क्या हो सकती है. मैंने उसे ‘शब्दों का जादूगर’ यूं नहीं कहा है, उसे शब्दों से खेलने का शौक था, फिर वह स्टोरी या न्यूज के प्रेजेंटेशन में भी उसे महारथ थी. वह शब्दों का बाजीगर था. और हर खबर को पैनी या चुटीली बनाना, उसके मिजाज में था. यह उसके लेखन में ही नहीं, उसके स्वभाव में था. वह उम्र में भले ही बहुत छोटा था, मगर वह मेरा मित्र, मेरा भाई, शुभचिंतक भी था. उसका यूं चले जाना मेरे लिए वाकई दुखद है। वो मुङो ईटीवी में ले जाने की जुगत में था. थोड़े दिन पहले ही जब वह भांजी की शादी में भोपाल आया था, तब बातचीत में यह मंशा जाहिर की थी. मेरे बारे में उसने अपने प्रोडय़ूसर से बात भी कर ली थी.
जिस दिन मैंने उसके आयडी पर अपना सीबी मेल किया, उसके चंद घंटों बाद ही काल ने उसे ग्रस लिया. आज जब भी मुङो वह बात याद आती है तो सोचता हूं कि प्रशांत ने मेरा सीवी देखा होगा कि नहीं, तो सिहर उठता हूं. प्रशांत को गए 10 साल हो गए, लगता नहीं हैं. ऐसा लगता है, हम चार इमली के उसके घर में ड्राइंग रूम में बैठे बतिया रहे हैं या दोनों उसकी बाईक पर सवार हो विधानसभा जा रहे हैं. प्रशांत भले ही आज हमारे बीच नहीं है, लेकिन वह आज भी मानसपटल पर मौजूद है. उसका खयाल ही मन-मस्तिष्क को झकझोर देता है. यह मेरे अकेले की बात नहीं, बल्कि उससे जुड़े हर शख्स का यही तजरुबा है. किसी ने जैसे उसके लिए ही कहा है-
‘‘वो मुफीस बड़ा खुद्दार था,
उसने सदियों की खैरात ना ली।
उसकी मुट्ठी में एक लम्हा था,
उसने वो लम्हा खर्च किया,
वो फनकार नहीं था, पर फनकारों की सफ में था।
उसको शोहरत की चाह थी, उसने शोहरत पे खर्च किया।’’
उसने सदियों की खैरात ना ली।
उसकी मुट्ठी में एक लम्हा था,
उसने वो लम्हा खर्च किया,
वो फनकार नहीं था, पर फनकारों की सफ में था।
उसको शोहरत की चाह थी, उसने शोहरत पे खर्च किया।’’
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