सोमवार, 14 मई 2012

नरेन्द्र मोदी: संघ-भाजपा सब पर भारी

देश की राजनीति पर अपनी पकड़ बनाए रखने के मकसद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने जनसंघ की स्थापना की थी। वक्त के हिसाब से जनसंघ बढ़ा हुआ और केंद्र में आपातकाल के बाद बनी जनता पार्टी सरकार में सत्तारूढ़ होने के बाद जनसंघ ने चाल बदल ली। किसी एक मध्यमवर्गीय परिवार जैसी ही कहानी है यह! बच्च बड़ा होने पर पालकों की सारी बातें माने, यह जरूरी नहीं। जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हुआ और जनता पार्टी के टूटने पर वह भारतीय जनता पार्टी में रूपांतरित हो गया। स्वाभाविक तौर पर स्वतंत्रता की इच्छा रखने में कुछ भी गलत नहीं पर वह स्वतंत्रता देने की तैयारी उसके जन्मदाता यानि संघ की नहीं है, शायद संघ और भाजपा के बीच द्वंद्व की असली वजह यही है।
भाजपा की स्थापना 06 अप्रैल 1980 को मुंबई अधिवेशन में हुई और दस साल के भीतर यानी मार्च 1990 में भाजपा अपनी पहली सरकार मध्यप्रदेश में बनाने में कामयाब हुई थी। तब मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा बने थे। उसके बाद भाजपा ने बड़ी-बड़ी छलांग लगाई। कांग्रेस के विकल्प के रूप में भाजपा ने खुद को स्थापित किया। इसके पीछे अटलबिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी सरीखे वरिष्ठ और अनुभवी नेताओं का परिश्रम था। उन्हें मुरली मनोहर जोशी, सुंदरसिंह भंडारी, जसवंतसिंह व सिकंदर बख्त जैसे नेताओं का सहयोग मिला। युवाओं में प्रमोद महाजन, सुषमा स्वराज आदि ने दूसरी पंक्ति की धुरा सफलतापूर्वक संभाल रखी थी। 

उत्तरप्रदेश में कल्याणसिंह, दिल्ली में मदनलाल खुराना, राजस्थान में वसुंधरा राजे सिंधिया और मध्यप्रदेश में उमा भारती ने पार्टी में अपना मुकाम हासिल कर लिया था। आज वाजपेयी मृत्यु शैया पर हैं। आडवाणी की उम्र उनके साथ नहीं है। सुषमा स्वराज ने लोकसभा में और नामी वकील अरूण जेटली ने राज्यसभा में कमान सम्हाल रखी है पर बाकी सर्वत्र अंधेरा है। जेटली ने अपने जीवन में एक भी चुनाव नहीं लड़ा। उनकी पहचान एलिट क्लास यानि आभिजात्य वर्ग के नेता की है। सुषमा स्वराज, बेशक अच्छी वक्ता हैं और यही बात उनके समर्थन में जाती है। आडवाणी आज भी पार्टी के वरिष्ठ नेता हैं परंतु दुर्भाग्य से उनकी उम्र उनके साथ नहीं और पार्टी और खास तौर पर संघ ने उन्हें ‘त्याज्य’ करार दिया है। 

जेटली और स्वराज में एकता, संवाद और परस्पर सहयोग का अभाव है। झारखंड में राज्यसभा चुनाव में भाजपा उम्मीदवार एस.एस. अहलुवालिया पराजित हो गए। क्यों? क्योंकि वे सुषमा स्वराज और आडवाणी गुट से थे, गडकरी और जेटली के खेमे से नहीं। अहलुवालिया की हार से पार्टी की थू-थू हुई। पार्टी में एकता का पूर्णत: अभाव है, इसीलिए संघ को शंका है कि भाजपा 2014 के चुनाव में सरकार बना पाएगी या नहीं?

इसी पृष्ठभूमि में भाजपा की मौजूदा राजनीति को समझना होगा। भाजपा ने अटल-आडवाणी के बाद कुशाभाऊ ठाकरे, जना कृष्णमूर्ति, बंगारू लक्ष्मण, वेंकैया नायडू, राजनाथ सिंह आदि को पार्टी की कमान सौंपी परंतु यह मंडली राजनीतिक दृष्टि से उतनी ‘वजनदार’ साबित नहीं हो सकी। उन दिनों वाजपेयी, आडवाणी और दीगर नेता सक्रिय थे और पार्टी पर उनकी पूरी पकड़ थी। खास तौर पर वाजपेयी और आडवाणी का कद इतना उंचा था कि संघ भी हस्तक्षेप से पहले सोचता था, मगर अब स्थिति उलट है। 

इन नेताओं के बाजू हो जाने के बाद संघ को एक बार फिर भाजपा पर अपनी पकड़ बनाने का मौका मिला है। संघ के मौजूदा नेतृत्व को पसंद, संघ की अपेक्षा से थोड़ा कम-ज्यादा ऊंचाई के व्यक्ति को नेतृत्व देकर अपनी पकड़ बनाए रखना ही संघ का छिपा उद्देश्य है। यही वजह है कि संघ के भरोसेमंद नितीन गडकरी पार्टी अध्यक्ष बने। गडकरी स्वयंसेवक हैं। ‘विकास पुरूष’ के रूप में विख्यात गडकरी की सोच है कि राजनीतिक दलों को भी विकास की राजनीति करना चाहिए, किंतु पार्टी के दूसरे वरिष्ठ नेता उनकी इस राय से इत्तेफाक नहीं रखते। 

संघ के कार्यो का उन पर गहरा प्रभाव है परंतु भाजपा एक राजनीतिक दल होने से राजनीति ही उसकी आत्मा है, यह मानने वाले उनसे असहमत हैं। गुजरात में नरेंद्र मोदी ने तो राजस्थान में वसुंधरा राजे सिंधिया ने बागी तेवर अखित्यार कर रखे हैं। यह मंडली शुद्ध राजनीतिक है इसलिए भाजपा का आंतरिक संकट और गहरा सकता है। संघ और संघ की विचारधारा से अलग भूमिका अपनाने की प्रवृत्ति भाजपा में बढ़ रही है। आडवाणी पाकिस्तान जाकर मोहम्मद अली जिन्ना की मजार पर पुष्पगुच्छ चढ़ा और जिन्ना को धर्म निरपेक्ष बता आए। 

संघ यहीं से उनसे चिढ़ गया और संघ ने उनके पर कतर दिए। मोदी ने गुजरात ने ‘ना संघ न भाजपा-केवल मोदी’ का सुर तान दिया है। गडकरी ने मोदी के विरोध और गुस्से की परवाह न करते हुए संघ प्रचारक संजय जोशी की पार्टी में वापसी की, जिससे मोदी चिढ़ गए और उन्होंने गडकरी से बात करना भी छोड़ दिया। नईदिल्ली में हुई पार्टी की कार्यकारिणी बैठक में भी शामिल नहीं हुए और उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव में भी मोदी नहीं गए। मुंबई में अगले सप्ताह होने वाली राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में भी उनके शामिल होने को लेकर शंका है। संघ भाजपा में भले ही अपनी छबि देखना चाहता है तो भी उसने यदि भाजपा को स्वतंत्र रूप से काम नहीं करने दिया तो दोनों के बीच संघर्ष अटल है।

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