चंदा बारगल/ धूप-छांव/ भारत की आदर्श एवं प्रतिव्रता महिलाओं में पुण्यश्लोका देवी अहिल्याबाई होल्कर, द्रोपदी, सीता, तारा, आदि का उल्लेख किया जाता है। इनमें से केवल द्रोपदी, केवल महाभारत की ही नहीं, बल्कि भारत के जीवन और संस्कृति का एक अत्यंत विलक्षण और महत्वपूर्ण चरित्र है, किंतु महाभारत को अपवादस्वरूप छोड़ दें तो दीगर साहित्य ने इस विषय को बहुत गंभीरता से नहीं लिया है।
उड़िया लेखिका प्रतिभा राय ने अवश्य द्रोपदी के चरित्र को न केवल गंभीरता से लिया, बल्कि उस पर एक उपन्यास लिख दिया। इस उपन्यास का शीर्षक ही 'द्रोपदी' है। हम कह सकते हैं कि प्रतिभा राय ने इस उपन्यास के जरिए द्रोपदी के साथ न्याय किया है। हाल ही में उन्हें प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए जाने की घोषणा हुई है।
प्रतिभा राय, मूलत: उड़िया हैं और उन्होंने अनेक उपन्यास लिखे हैं। उनके कई उपन्यास लोकप्रिय भी हैं और पुरस्कृत भी हुए हैं। कई पर फिल्में भी बनीं हैं। भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित और पांडवों से ब्याही गई द्रोपदी का जीवन अनेक पहलुओं से बंटा हुआ है, लेकिन उससे द्रोपदी का व्यक्तित्व कम नहीं होता। उसकी जीवन से तत्कालीन जीवन के अनेक आयाम पता चलते हैं।
उड़िया भाषा में प्रतिभा संपन्न प्रतिभा राय के 'शीलापदम्' उपन्यास को उड़ीसा साहित्य अकादमी पुरस्कार सन् 1986 में मिल चुका है। इसी उपन्यास का हिंदी अनुवाद 'कोणार्क' शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। इस उपन्यास में महज पत्थरों को तराशकर निर्मित कलाकृतियों का चित्रण नहीं, बल्कि उड़िया जाति की कलात्मकता और कलाप्रियता को चित्रित करते हुए लेखिका ने कोणार्क के सूर्यमंदिर का उल्लेख किया है जो भारतीय कला—कौशल, कारीगिरी, आदर्श की उत्कृष्ट मिसाल है।
प्रतिभा राय की अनेक पुस्तकें लोकप्रिय हैं। उनमें 'मां का ध्यान रखना', 'देवकी का बेटा', 'उसका अपना आकाश' ऐसी अनेक पुस्तकों का जिक्र किया जा सकता है। 21 जनवरी 1943 को कटक जिले में जन्मीं प्रतिभा राय का शुमार देश के नामचीन ललित साहित्यकारों में होता है। डॉ. प्रतिभा राय अब तक 20 उपन्यास, 24 लघु कथा संग्रह, 10 सफरनामा, दो काव्य—संग्रह और अनेक निबंध लिख चुकी हैं। उनकी प्रमुख रचनाओं का देश की विभिन्न भाषाओं के अलावा अंग्रेजी व अन्य विदेशी भाषाओं में भी अनुवाद हुआ है।
उनके 'द्रोपदी' उपन्यास को मूर्तिदेवी पुरस्कार मिल चुका है। इस पुरस्कार से सम्मानित होने होने वाली वे पहली महिला साहित्यकार हैं। इसी प्रकार उन्हें साहित्य अकादमी, पद्मश्री और कथा पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।
ज्ञानपीठ पुरस्कार की साहित्यिक जगत में एक अलग ही प्रतिष्ठा और महत्व है। जिन्हें यह पुरस्कार मिलता है, उनकी पहचान केवल उस भाषा तक सीमित न होकर इस पुरस्कार के कारण राष्ट्रीय स्तर पर हो जाती है और हर साहित्यकार की हसरत होती है इस पुरस्कार को पाने की। अब तक ज्ञानपीठ पुरस्कार के तहत सात लाख रूपए की राशि दी जाती है जो बढ़ाकर 11 लाख रूपए कर दी गई है।
भारतीय ज्ञानपीठ की स्थापना 1944 में हुई थी। कुछ मौकों पर यह पुरस्कार दो साहित्यकारों को दिया गया है। ऐसी स्थिति में पुरस्कार की राशि दोनों में बांट दी जाती थी, किंतु अब हर साहित्यकार को पूरी राशि देने की व्यवस्था की गई है। अब तक ज्ञानपीठ पुरस्कार से हिंदी के 9, कन्नड़ के आठ, बंगाली और मलयालम के पांच—पांच, उर्दू के चार, गुजराती, मराठी और उडिया के तीन—तीन, आसामी, तमिल, पंजाबी और तेलगू के दो—दो एवं संस्कृत, कोंकणी और कश्मीरी के एक—एक साहित्यकार सम्मानित हो चुके हैं। अब तक छह महिलाओं को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिल चुका है। डॉ. राय सातवीं महिला साहित्यकार हैं। बंगाली लेखिका आशापूर्णा देवी ज्ञानपीठ पुरस्कार पाने वाली पहली महिला साहित्यकार थीं और अब डॉ. प्रतिभा राय ने ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त कर महिला साहित्यकारों की उस कड़ी को ही आगे बढ़ाया है।
डॉ. प्रतिभा राय, मूलत: सामाजिक कार्यकर्ता हैं। इसके साथ ही सतत् लेखन—कार्य करती रहती हैं और उसके जरिए वे सामाजिक सवालों, समस्याओं को रेखांकित करती हैं। एक बार वे अपनी एक सहेली के साथ पुरी के जगन्नाथ मंदिर गईं थी। वह सहेली गोरी होने के कारण पुजारियों को विदेशी लग रही थी, इसलिए पुजारियों ने उसे रोक दिया। उन्होंने पुजारियों को लाख समझाने की कोशिश की पर वे नहीं मानें और उनके साथ अपमानजनक बर्ताव किया, तब डॉ. प्रतिभा राय ने एक लेख लिखा, जिसका शीर्षक था—'धर्म का रंग काला है।' यह लेख प्रकाशित होते ही डॉ. राय पहले से ज्यादा सुर्खियों में आई और लोकप्रिय हो गईं। ऐसी डॉ. प्रतिभा राय को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने पर हम कह सकते हैं कि यह वाकई प्रतिभा का सम्मान है।
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