रविवार, 16 दिसंबर 2012

2014:राहुल गांधी बनाम नरेंद्र मोदी

चंदा बारगल/ धूप-छांव/ गुजरात विधानसभा के चुनाव की महाभारत ने देशभर में जो जोश व उत्साह पैदा कर दिया है, वह इसके पहले दूसरे किसी राज्य में नहीं देखा गया। बिहार और उत्तरप्रदेश के जैसे बड़े सूबों के चुनाव के दौरान भी ऐसा माहौल देखने को नहीं मिला था। कांग्रेस और भाजपा ने तमाम दिग्गज नेताओं को ही नहीं उतारा, बल्कि अपनी सारी ताकत झोंक दी। देश की तमाम इलेक्ट्रानिक्स चेनलों ने गुजरात चुनाव के संग्राम पर जो कवरेज दिया, वह इसके पहले नहीं देखा गया। देश—विदेश के 4 सौ से 5 सौ पत्रकारों ने गुजरात में डेरा डाले रखा। 


प्रधानमंत्री कौन?


गुजरात के चुनाव को 2014 के लाकसभा चुनाव का लिटेमस टेस्ट कहा जा सकता है। 2014 के चुनाव में 'प्रधानमंत्री कौन' यह तय करने के लिए गुजरात की रणभूमि पर महाभारत खेली जा रही है, ऐसा लगता है। 2014 में होने वाले लोकसभा के चुनाव के स्पेक्टेक्युलर शो के पूर्व का यह ट्रेलर जैसा लगता है। एक एक्शन फिल्म के लिए वांछित तमाम चीजें इस चुनाव में देखने को मिली है। टिकट वितरण के वक्त जबरदस्त खींचतान, पार्टी में विद्रोह, आरोप-प्रत्यारोप, विज्ञापन—युद्ध, थ्री-डी दृश्य और जंगी रैलियों व सभाओं के दृश्य देखने को मिले। 

गुजरात के महा-संग्राम पर सबकी नजर रही, क्योंकि 2014 में आहूत लोकसभा चुनाव राहुल गांधी विरुद्ध नरेंद्र मोदी के बीच होने की ही प्रबल संभावना है। भाजपा के दिल्ली के नेता चाहें या न चाहें पर भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ चाहता है कि मोदी ही प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी हों तो कांग्रेस से प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी राहुल गांधी होना तय है। कांग्रेस में राहुल गांधी के नाम पर सर्वसम्मति है तो भाजपा में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार को लेकर घमासान है और सिर-फुटौव्वल की स्थिति है। ऐसे में यह नहीं कहा जा सकता कि मोदी ही प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी है। 

मोदी ही भाजपा में सिरमौर


भाजपा के भीतर प्रधानमंत्री पद के अनेक उम्मीदवार होने के बाद भी पार्टी की आंतरिक स्पर्धा में वे अव्वल हैं। मोदी गुजरात में लोकप्रिय हैं तो उनके करिश्माई व्यक्तित्व भी है। वे अपने विरोधियों को मात करने या जवाब देने में भी माहिर है। उनके पास मनी पॉवर, वक्तृत्व कला और उर्जा भी है। भाजपा के किसी दूसरे नेता के पास ये खूबियां नहीं है। अरूण जेटली या निर्मला सीतारमण जैसे नेता भी मीडिया के सामने बोलें या नहीं बोलें या बोलें तो क्या बोलें, यह मोदी ही तय करते हैं। मोदी के आगे दिल्ली के दीगर भाजपा नेता बौने ही लगे। एक जमाने में हजारों की भीड़ इकट्ठा करने वाली उमा भारती को सुनने के लिए लोग इकट्ठा करने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितीन गडकरी को भी केवल रस्म अदायगी के लिए बुलाया गया। 

सोनिया लोकप्रिय 


भाजपा के सामने कांग्रेस की स्टार प्रचारक सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ही रहे। सोनिया गांधी ने अपनी वक्तृत्वकला में बहुत सुधार किया है। देश का एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो नेहरू—गांधी परिवार से आज भी प्रभावित है। सोनिया गांधी के भाषण शालीन और उम्दा रहे। लोगों में उन्हें सुनन—देखने के लिए विशेष आकर्षण था। एक जमाने में पंडित जवाहरलाल नेहरू जहां भी भाषण देखने जाते थे, तो लाखों लोग उमड़ पड़ते थे। अनेक वर्षों पहले जब वे हिम्मतनगर आए थे। उस वक्त लोग उन्हें सुनने दूर—दराज से बैलगाड़ी पर आए थे। ऐसा ही आकर्षण इंदिरा गांधी का था। इंदिरा गांधी का व्यक्तित्व करिश्माई था। वे एक्शन ओरियेंटेड पॉलीटिशियन थीं। उनके मोरारजी देसाई के साथ हुए अहम् के टकराव के कारण कांग्रेस दोफाड़ हो गई थी। 
पाकिस्तान के दो टुकड़े कर बांग्लादेश को आजाद किया था। उन्होंने रातों—रात बेंकों का राष्ट्रीयकरण और राजा—महाराजाओं के पिर्वीपर्स बंद कर दिए थे। जब वे गुजरात के दौरे पर आतीं थीं तो लोगों की भीड़ उन्हें देखने रास्तों पर उमड़ पड़ती थी। भाजपा में अटलबिहारी वाजेपयी ही एकमात्र ऐसे नेता थे जिन्हें सुनने लाखों की भीड़ स्वस्फूर्त हो उमड़ती थी। अब नेताओं की सभाओं के लिए लोग जुटाने पड़ते हैं। अब चुनावी सभाओं में लोगों की भीड़ को इकट्ठा करना शक्ति प्रदर्शन के लिए जरूरी समझा जाता है। भीड़ इकट्ठा करने के लिए बड़ा बजट दिया जाता है। 

बहुत कम लोगों को इस बात की खबर है कि गुजरात के इस महासंग्राम पर राहुल गांधी की सूक्ष्म नजर रही है। यूपी के चुनाव में भी वे कांग्रेस का चेहरा थे। इस चुनाव में भी उन्होंने बिना किसी धूमधड़ाके के अपना काम किया है। टिकट विकरण भी राहुल गांधी की इच्छा के मुताबिक हुआ है। दो बार की हार का फार्मूला बनाकर नरहरि अमीन जैसों का टिकट काटने का सख्त फैसला भी राहुल गांधी का था। राहुल गांधी भलीभांति जानते हैं कि 2014 के चुनाव में उनके सामने नरेंद्र मोदी ही होंगे, इसलिए उन्होंने गुजरात के चुनाव में गहरी रूचि ली है और राहुल गांधी ने इस बार सबसे युवा नेताओं को गुजरात भेजा। 2014 का चुनाव 40 वर्षीय राहुल और 62 साल के नरेंद्र मोदी के बीच ही लड़ा जाएगा। इस बात की खबर नरेंद्र मोदी को भी है, इसलिए उन्होंने सोनिया गांधी और उनके राजनीतिक सचिव इहमद पटेल पर सख्त लहजे में वार किए हैं। उल्लेखनीय बात यह है कि चुनाव के पूर्व दोनों पार्टियों के लोगों ने 'अपना घर' से लेकर दूसरे वादों की झड़ी लगा दी थी पर चुनावी सभाओं में लोगों की समस्याओं की बात कम और आरोप निजी आरोप—प्रत्यारोप अधिक हुए। 

उत्तरप्रदेश और बिहार के चुनाव में राहुल गांधी ने व्यूहरचना बनाई थी पर वे वहां सफल नहीं हो पाए। उन्हें अपने पिता राजीव गांधी या दादी इंदिरा गांधी जैसा राजनीतिक कौशल अभी साबित करना बाकी है। वक्त बहुत तेजी से बदल रहा है। पिछली जुलाई में जब लोकपाल बिल पर संसद में चर्चा चल रही थी, तब राहुल गांधी ने एक अच्छा मौका गवां दिया। लोग भ्रष्टाचार से त्रस्त हैं, तब उन्होने लोकपाल बिल बनवा दिया होता तो जनता में उनकी जय—जयकार हा जाती। इंदिरा गांधी ने बेंकों का राष्ट्रीयकरण कर गरीबों को खुश कर दिया था। हालांकि, राहुल गांधी के पास अभी भी वक्त है।

क्या आम चुनाव पहले होंगे? 


2012 के गुजरात चुनाव पर यूपीए—2 के घटक दलों औश्र एनडीए के घटक दलों की भी नजर है। खुद भाजपा के राष्ट्रीय नेता भी टकटकी लगाकर बैठे हैं। भाजपा के दिल्ली और नागपुर के नेता भी यह देखने को आतुर हैं कि मोदी की लोकप्रियता घटेगी या बढ़ेगी। बिहार में बैठे नीतिशकुमार, जिनकी लोकप्रियता सिमट रही है, वे भी यह देखना चाहते हैं कि भाजपा की सीटें घटती है या बढ़ती है। एलके आडवाणी जैसे उम्रदराज नेता भी किसी चमत्कार की उम्मीद में प्रधानमंत्री बनने का सपना संजोए हुए हैं। अब तक प्रधानमंत्री नहीं बन पाने का हताशा का भाव उनके चेहरे पर स्पष्ट परिलक्षित होता है। सुषमा स्वराज भी वरिष्ठ नेत्री हैं और जब मोदी का नाम आते ही उनका चेहरे पर तनाव आ जाता है। अरूण जेटली भी प्रधानमंत्री बनने की दौड़ में है, परंतु नरेंद्र मोदी के मुकाबले वे लोकप्रियता में उन्नीसे हैं। मोदी को लगता है कि भाजपा में वे एकमात्र ऐसे नेता हैं, जो दिल्ली में पार्टी को तख्त—ओ—ताज दिला सकते हैं और उनके इसी अहम् के चलते दूसरे दिग्गज नेताओं ने उनसे दूरी बना ली है। 

देश और लोकसभा की स्थिति को देखते हुए ऐसा लगता है कि कांग्रेस मियाद पूर्व चुनाव करवा सकती है, लेकिन यह तीन बातों पर निर्भर करेगा। पहली बात गुजरात चुनाव के नतीजे, दूसरी बात मायावती और तीसरी बात मुलायम सिंह का रूख। हालांकि कांग्रेस ने भीतरी तौर पर चुनाव की तैयारी कर रखी है। राहुल गांधी का निजी सचिवालय इस दिशा में काम कर रहा है। कांग्रेस में भी दो गुट हैं। एक गुट सोनिया गांधी के साथ है तो दूसरा गुट सोनिया गांधी के साथ है, परंतु एक ऐसा भी द्वंद्व है जो बाहर से दिखाई नहीं पड़ता। 

अब राहुल गांधी अपनी टीम बनाने में जुटे हैं। गुजरात चुनाव के प्रभारी सीपी जोशी, राहुल गांधी के निजी और वफादार हैं। राहुल गांधी के राजनीतिक गुरू दिग्विजयसिंह और जनार्दन द्विवेदी जैसे अनुभवी नेता हैं। ये सब 2014 के चुनाव में नरेंद्र मोदी विरुद्ध राहुल गांधी को दिल्ली का ताज पहना पाएंगे या नहीं, यह वक्त ही बताएगा।2014 के चुनाव के पहले मौजूदा राजनीतिक को देखते हुए किसी भी राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत मिलने की संभावना नहीं है। कांग्रेस या भाजपा को गठबंधन के सहारे ही चुनाव लड़ना होगा। देश का प्रधानमंत्री बनने का सपना देखने वालों में शरद पवार, मुलायमसिंह यादव, मायावती, जयललिता और नीतिशकुमार जैसे दूसरे नेता भी हैं। देश में आज 25 करोड़ से भी अधिक मुस्लिम हैं। उनको या दीगर अल्पसंख्यकों को कम आंकना किसी के लिए भी नुकसानदायक साबित हो सकता है। गुजरात का चुनाव जीतना आसान है, जबकि पूरे देश का चुनाव जीतना बेहद जटिल है। प्रधानमंत्री बनना तो और भी जटिल। गुजरात में भाजपा ने एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया, यह प्रयोग भी राष्ट्रीय स्तर पर मोदी का फायदा कराएगा या नुकसान, यह भी देखने योग्य होगा।

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