गुड़गांव के नजदीक मनेसर में 70 फीट गहरे बोरवेल में गिरी 4 साल की अबोध बच्ची माही को पूरे 88 घंटों के बाद बाहर निकालने में प्रशासन को कामयाबी तो मिली, लेकिन नियती के आगे किसी की नहीं चलती, इस बात का एहसास एक बार फिर हो गया। डाक्टरों द्वारा माही को मृत घोषित करते ही उसके माता-पिता विलाप करने लगे। कुछ घंटों पहले ही माही का पांचवां जन्मदिन मनाया गया था. उसी दिन रात को बच्चों के साथ खेलते वक्त माही 70 फीट गहरे बोरवेल के खड्डे में गिर गई। उसे बाहर निकालने के लिए सेना, अगिAशमन, पुलिस और मेट्रो के जवानों ने अथक मेहनत की पर तब तक माही दम तोड़ चुकी थी।
चिकित्सकों के मुताबिक, बोरवेल में ही वह बेहोश हो चुकी थी, तभी उसने दम तोड़ दिया था। दुर्भाग्य की बात यह भी है कि जिस बोरवेल के खड्डे में गिरने से माही की मृत्यु हुई, उसके बारे में स्थानीय प्रशासन को कुछ भी जानकारी नहीं थी। उसी प्रकार, ऐसी आपदा के वक्त बचाव कार्य कैसे नहीं होना चाहिए, इसका भी एक आदर्श उदाहरण देखने में आया। बोरवेल में माही के गिरने की खबर मिलने के कुछ घंटों बाद मौके पर पहुंची पुलिस के पास बचाव कार्य के लिए जरूरी उपकरण भी नहीं थे। माही को बचाने की कोशशों के दौरान चट्टान की अड़चन पैदा हो गई थी। 50 घंटे की अथक मेहनत के बाद जवानों ने इस चट्टान को भेदकर माही तक पहुंचने के लिए बोरवेल के समांतर करीब 80 फीट का खड्डा खोदा था, इसलिए उनके योगदान को सलाम करना ही पड़ेगा।
इसके बावजूद माही को बाहर निकालने में 88 घंटे लग गए। बोरवेल में गिरने के बाद 2 घंटे तक माही ‘पापा, मुङो बाहर निकालो’ चीत्कार रही थी, लेकिन उसके बाद माही की चीख थम गई थी। बचाव कार्य शुरू होने के साथ ही उसे बोरवेल में आक्सीजन सप्लाय की गई थी पर दुर्भाग्य कि माही जिंदगी की लड़ाई हार चुकी थी. अपने घर के पास खेलते-खेलते वह जिस जानलेवा खड्डे में समां गई थी, वह तमाम कायदे-कानूनों को धता बताते हुए खोदा जा रहा था। इसके साथ ही यह सवाल भी उत्पन्न होता है कि जो देश हजारों किलोमीटर दूर तक मार करने वाली मिसाईल बना सकता है, जो देश चंद्रमा पर पानी खोज लेता है, उसी देश में खड्डे में गिरे नौनिहालों को सकुशल निकालने में हमारी मशीनरी क्यों नाकाम हो जाती है? लिहाजा, माही की मौत के जिम्मेदार लोगों पर कड़ी कार्रवाई होना चाहिए। इसके साथ ही तमाम कायदे-कानूनों को ताक पर रखकर किए लाने वाले ‘बोर’ पर भी सख्ती से रोक लगना चाहिए। ऐसा होने पर भविष्य में ऐसी दुर्घटनाओं की पुनरावृत्ति नहीं होगी।
बोरवेल में बच्चों के गिरने की दुर्घटना हमारे यहां होती रहती हैं। कुछ साल पहले प्रिंस नामक एक छोटा बच्च भी ऐसी ही दुर्घटना का शिकार हुआ था पर सेना के जवानों की तमाम कोशिशों के बाद उसे सकुशल निकाल लिया गया था। प्रिंस के सकुशल निकलने के बाद उसे सिने जगत की कुछ हस्तियों और न्यूज चेनलों ने हाथों-हाथ लिया था और जैसे उस पर ममता की वर्षा हो गई थी। तब लगा था कि ऐसी दुर्घटनाओं पर विराम लगेगा, लेकिन हमारी राष्ट्रीय बुराई लापरवाही से हम कब मुक्त हो पाएंगे? पिं्रस के बाद अनेक नौनिहाल ऐसे खड्डों में गिरकर प्राण गवां चुके हैं. ऐसी दुर्घटनाएं प्रिंस के पहले भी हो चुकी हैं, लेकिन खबरों में उन्हें अधिक महत्व नहीं मिल पाया।
केवल, पिं्रस की घटना की पल-पल की जानकारी न्यूज चेनलों ने प्रसारित की जिससे पूरे देश का ध्यान इस ओर गया और उसे सहानुभूति मिली। कुछ दिनों पूर्व फलक नामक बालिका की मृत्यु पर सहानुभूति का जैसा सैलाब उमड़ा था, ठीक वैसा ही प्रिंस के वक्त भी उमड़ा था। संवेदना के ऐसे प्रचार-प्रसार के बीच बंगलुरू में आफरीन नामक बच्ची अपने ही पिता के क्रोध का शिकार होकर मार दी गई थी माही मौत के खड्डे की बलि चढ़ गई। यह सब कहने का आशय केवल इतना है कि न्यूज चेनल्स पर ये सीन देखने के बाद सहानुभूति, सांत्वना, आक्रोश की जो बयार पैदा होती है, वह न्यूज चेनल से बाद में गायब हो जाती है और मासूम और अबोध बच्चों की जान से खेलने का खेल शुरू ही रहता है।
किसी भी परियोजना को संचालित करने के लिए सुरक्षा और सावधानी बरतने के लिए, कौन-से नियमों का पालन किया जाना चाहिए, इसकी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्याख्या की गई है परंतु भारत में जैसे उन नियम-कायदों का पालन नहीं करने की हमने कसम खा रखी है। ऐसे खनन और निर्माण कार्यो में जिस प्रकार की दुर्घटनाएं होती हैं, उन्हें देखने के बाद इन कार्यो को घातक या खतरनाक कामों की श्रेणी में ही रखा जा सकता है।
संबंधित सरकारी विभाग ऐसे कामों के दौरान इन नियम-कायदों पर सख्ती से अमल करें तो ऐसी अनेक दुर्घटनाएं टाली जा सकती हैं। खुले मार्ग पर या स्थान पर ईंट,सीमेंट, रेती आदि निर्माण सामग्री रखना, जिन स्थानों पर निर्माण कार्य शुरू है, वहां पर सावधानी बरतने का बोर्ड न लगाना, जिस स्थान पर निर्माण कार्य शुरू है, उस स्थान को चारों तरफ से घेरकर काम करना, कार्यरत श्रमिकों या मजदूरों को आवश्यक सुरक्षा उपकरण उपलब्ध न कराना आदि गैर कानूनी काम हम भारत के किसी भी शहर के किसी भी भाग में आसानी से देख सकते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने 12 फरवारी 2012 को राज्यों के मुख्य सचिवों को आदेश जारी कर कहा था कि जिन राज्यों में बोरवेल का काम होता है, वहां खड्डा भरने की व्यवस्था की गई है या नहीं, यह देखा जाए। सरकार के आदेश हों तो भी बोर करने के 15 दिन पूर्व जिला कलेक्टर, भू-जल सव्रेक्षण, स्वास्थ्य विभाग और स्थानीय निकाय संस्था को उस बारे में जानकारी देना आवश्यक है। गांवों में बोरवेल के खुदाई कार्य सरपंच और कृषि विभाग के अधिकारियों की निगरानी में होंगे। शहरों में भू-जल सव्रेक्षण विभाग, स्वास्थ्य विभाग और स्थानीय निकाय संस्था के इंजीनियर की देखरेख में होगा। इसके साथ ही बोर करने वाली कंपनी का पंजीयन होना भी जरूरी है।
बोरवेल की खुदाई के बोर्ड, संकेतक लगाकर खुदाई कार्य की जानकारी देना भी आवश्यक है। बोरवेल के आसपास कांक्रीट की दीवारें भी बनाई जानी चाहिए। खड्डे के मुंह का हिस्सा स्टील के ढक्कन से ढांकना चाहिए। इनमें से प्रमुख नियमों का पालन किया जाए तो देश में बोरवेल में गिरने की दुर्घटनाओं में कमी आ जाएगी किंतु प्रशासन का इस ओर ध्यान ही नहीं जाता। यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों का भी पालन नहीं होता। ऐसे नियमों का सख्ती से पालन करने का हरियाणा सरकार ने निर्देश दिया होता तो माही जैसी मासूम बिटिया की जान नहीं जाती। जब इस प्रकार की आपदा-विपदा आती है, तब हम सेना के जवानों की मदद लेते हैं पर आपदा प्रबंधन करने वाली मशीनरी कैसी है, इसकी चिंता कोई नहीं करता।
कहने के लिए राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की स्थापना की गई है पर वहां केवल सेवानिवृत्त अधिकारियों को उपकृत करने का काम अधिक किया जाता है। यदि इस सरकारी विभाग यानी प्राधिकरण ने अपनी जिम्मदारी निष्ठापूर्वक निर्वाह की तो सेना कें जवानों की मदद हमें क्यों लेना पड़ेगी? फिर प्रिंस हो या माही को बचाने की कोशिशें होंगी और उन्हें बचाने में हम कामयाब भी होंगे। फिर बिहार की बाढ़ हो या दिल्ली में फुटओवर पूल के ढहने की घटना हो या मुंबई के सेक्रेटरिएट की आग हो, ऐसी किसी आपदा के वक्त इस विभाग की भूमिका या योगदान के बारे में उल्लेख करने जैसा कुछ भी नहीं है। मुंबई के मंत्रलय में हुए अगिA तांडव और उस कारण महाराष्ट्र सरकार की फजीहत को देखने के बाद हमें खुद पता चल जाता है कि आपदा प्रबंधन प्राधिकरण कितना सक्षम है या कितना लचर है?
चार साल की मासूम माही अपनी जिंदगी की लड़ाई भले ही हार गई पर उसकी मौत के जिम्मेदार खुले घूम रहे हैं। उन्हें न कानून की फिक्र है, न किसी मासूम की जान जाने का दुख है। ऐसे मामलों में प्राय: देखा गया है कि जब किसी मासूम की जान जाती है, तभी शासन-प्रशासन की नींद खुलती है। ऐसे बोर करने वालों को पहले ही कड़ी सजा मिली होती तो मासूम माही की नहीं जाती।
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