रविवार, 24 फ़रवरी 2013

ये कैसी माया, कैसे मुलायम?

चंदा बारगल/ धूप-छांव/ केलेण्डर की तारीखें जैसे-जैसे 2014 की तरफ बढ़ रही हैं, वैसे-वैसे हमारे 'मुंगेरीलाल' नेताओं के सपने देखने की सूची बढ़ती जा रही है। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद बसपा सुप्रीमो मायावती से लेकर मुलायमसिंह यादव और केंद्रीय कृषिमंत्री शरद पवार तक प्रधानमंत्री पद के ख्वाब देख रहे हैं।


ये लोग तो यह ख्वाब भी देख रहे हैं कि यदि समय पूर्व आम चुनाव होते हैं तो शायद प्रधानमंत्री की कुर्सी पर वे ही विराजमान हो जाएं! मुलायमसिंह तो उप्र में बेटे अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाने के बाद ही तीसरे मोर्चे का कार्ड खेल चुके थे, मगर उन्हें वांछित समर्थन नहीं मिला। अब मायावती भी उसी कतार में आ गई है।

बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो और उप्र की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती रविवार को लखनऊ से ठेठ नागपुर जाकर सभा को संबोधित किया और यह जताने की कोशिश की कि जैसे वे किसी एक राज्य विशेष की नेता नहीं बल्कि पूरे भारत की नेता हैं। तुम मुझे प्रधानमंत्री बना दो, फिर देखो मैं क्या- क्या करती हूं। महाराष्ट्र से विदर्भ को पृथक राज्य बना देने के साथ ही अनेक बड़ी- बड़ी बातें मायावती ने कीं। हकीकत तो यह है कि महाराष्ट्र, देश के दूसरे राज्यों से एकदम भिन्न राज्य है। 

महाराष्ट्र में एक-दो नहीं चार-चार पार्टियों का अपना-अपना जनाधार है। कांग्रेस सबसे पुरानी पार्टी है तो मराठा क्षत्रप शरद पवार का अपना जनाधार है और वह कांग्रेस को सतत् पछाड़ने में लगी रहती है तो दूसरी तरफ उद्धव ठाकरे की शिवसेना और उनके चचेरे भाई राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना है। दोनों ही ठाकरे बंधु यूपी और बिहार के भैयाओं पर निशाना साधते हैं, तब वहां के नेता भी महाराष्ट्र जाकर बवाल मचा आते हैं।

देश की राजनीति में आजादी के बाद से लेकर आज तक उत्तरप्रदेश का दबदबा रहा है। इसकी एक बड़ी वजह उप्र की लोकसभा सीटें है। पूरे देश में सबसे ज्यादा लोकसभा की 81 सीटें उप्र में हैं। इसके बाद दूसरे नंबर पर महाराष्ट्र आता है। महाराष्ट्र में लोकसभा की 48 सीटें हैं। मतलब यह कि यूपी की सीटें, महाराष्ट्र जैसे राज्य से दोगुनी से भी कम हैं और मप्र, गुजरात, राजस्थान जैसे तमाम राज्यों के मुकाबले दोगुनी से भी ज्यादा है, इसलिए यहां के नेताओं का कद उंचा होता है और वे अपने-अपने गणित करते रहते हैं। 

हां, यूपी की 81 में अधिकांश सीटें मुलायम या मायावती जीत लें तो ऐसा सोच सकते हैं पर इसकी संभावना क्षीण है, क्योंकि यूपी के वोटर सारे अंडे एक टोकरी में रखने के आदी नहीं है और सीटें बांट देते हैं और बारी-बारी से आजमाते रहते हैं।

पूरे उप्र में खुद के और अपने पार्टी चिह्न हाथी के स्टेच्यू खड़े कर बदनाम हो चुकी मायावती को पिछले साल मार्च में हुए ​उप्र विधानसभा चुनाव में लोगों ने वोट न देकर सत्ता साकेत से खेत रखा था। यूपी विधानसभा की 403 सीटों में से बहुजन समाज पार्टी को जैसे-तैसे 80 बैठकें मिलीं थीं, तो दूसरी तरफ मुलायमसिंह की समाजवादी पार्टी पर वोटर खुश थे और उसकी झोली में 224 सीटें डालकर सत्ता-सिंहासन सौंप दिया था। भाजपा को केवल 47 और कांग्रेस मात्र 28 सीटों पर सिमट गई थी। 

राहुल गांधी ने यूपी इलेक्शन में रात-दिन एक किया था, पर जब नतीजे आए तो देश के दोनों बड़े राजनीतिक दलों की दाल पतली हो गई। मुलायमसिंह ने बेटे अखिलेश को मुख्यमंत्री इसलिए बनाया, ताकि वे मुक्त रूप से राष्ट्रीय राजनीति में दाखिल हो सकें।

मुलायम को उम्मीद है कि विधानसभा चुनाव का इतिहास लोकसभा चुनाव में भी दोहराया जाएगा तो उनकी बात बन जाएगी। उप्र की 81 लोकसभा सीटों में से समाजवादी पार्टी के पास 22 और बसपा के पास 21 सीटें ह यानी आधी से ज्यादा सीटें इन दोनों दलों के पास है, किंतु बीते पांच सालों में बहुत कुछ बदल गया है।

मायावती के हाथ से सत्ता चली गई है तो सबसे कम उम्र में मुख्यमंत्री बनने का   का रिकार्ड बनाने वाले अखिलेश की एक साल के भीतर कुछ उल्लेखनीय नहीं कर पाए हैं। उनका प्रदर्शन ठीक—ठाक ही कहा जा सकता है, क्योंकि कोई करिश्मा उनके खाते में नहीं है।

राजनीति का क्षेत्र भी कितना दिलचस्प है, इसका एक विचित्र और दिलचस्प उदाहरण मायावती और मुलायमसिंह हैं। दोनों परस्पर कट्टर प्रतिद्वंद्वी हैं, फिर भी दोनों ही दिल्ली में यूपीए सरकार को बाहर से समर्थन देते हैं। यूपीए सरकार तमाम मौकों पर गिरते—गिरते बच गई, तो केवल इनकी मेहरबानी से। मेहरबानी कहिए या मजबूरी। मजबूरी कहना अधिक उपयुक्त होगा।

देश की राजनीति में तीसरा मोर्चा कभी भी कुछ नहीं कर पाया। सत्ता की बागडोर दोनों प्रमुख दलों-कांग्रेस और भाजपा के इर्दगिर्द रही है। यदि 1989 की बात करें तो वीपी सिंह के जनमोर्चा को जनता पार्टी ने समर्थन दिया था, पर वे लंबे समय तक टिक नहीं सके थे। वीपी​ सिंह के बाद आए चंद्रशेखर तो प्रधानमंत्री पद पर बहुत कम समय टिक पाए। उन्हें कांग्रेस ने समर्थन दिया था। तीसरा मोर्चा बनने की संभावना वैसे तो बहुत कम है और अगर बन भी गया तो वह लंबे समय तक टिक नहीं पाएगा। देखने वाली बात यह है कि माया और मुलायम कितना जोर लगाते हैं, किंतु एक बात साफ कही जा सकती है कि दोनों के लिए अभी दिल्ली दूर है।

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